पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौ०-पुरजन परिजन सकल निहोरी । तात सुनायेउ बिनतो मेरी ॥ सोइ. सब भाँति मार हितकारी । जा तें रह नरनाह सुखारी ॥१॥ हे तात ! सम्पूर्ण नगर निवासी और कुटुम्बीजनों से निहोरा कर के मेरी विनती सुनाना कि वही मेरा सब तरह हितकारी है, जिससे राजा सुखी रहे ॥१॥ कहब सँदेस भरत के आये । नीति न तजिय राज-पद पाये। पालेहु प्रजहि करम मन बानी । सेयेहु मातु सकल सम जानी ॥२॥ भरत के माने पर उनसे मेरा सन्देशा कहना कि नीति से पाये हुए राज-पद को वेन त्यागेंगे। कर्म, मन, वचन से प्रजा-पालन करेंगे और सम्पूर्ण माताओं को बराबर समझ कर उनकी सेवा करेंगे॥२॥ 'नीति' शब्द में लक्षणामूलक अगूढ़ व्यङ्ग है कि-"वेद विहित सम्मत सब ही का। जेहि पितु देह लो पावर टीका पुन:-"लोक वेद सम्मत सब कहई । जेहि पितु देह राज सेो लहई" के अनुसार भरत को पिताद राज्य मिला है। मैं भी प्रसन्नता से अनुमति देता हूँ कि उसको वे सहर्ष स्वीकार करें, परित्याग करना उचित नहीं है । सब माताओं को बराबर समझ कर सेवा करने के लिये कहने में गूढ़ाशय यह है कि केकयी का अनादर न करेंगे। इस चौपाई का बहुते ने ऐसा अर्थ किया है कि-भरत के आने पर सन्देशा कहना राज्यपद पा कर नीति को न छोड़ेंगे। भरतजी के सम्बन्ध में रामचन्द्रजी का यह विश्वास है कि-"कही तात तुम्ह नीति सुहाई । सय तें कठिन राज-मद भाई ॥ जो अचवत माँतहिँ नृप तेई । नाहि न. साधु समा जेहि सेई ॥ सुनहु लखन भल भरत सरीला । विधि प्रपञ्च महँ सुना न दीसा ॥ दोहा०-भरतहि होइन राज-मद, विधि हरिहर पद पाइ । कबहुँ कि काँजी सीकरनि, छीर- सिन्धु विनसाइ ॥ २३१ ॥ चौo-तिमिर तरुन तरनिहि मकु गिलई । गगन मग न मकु मेघहि मिलई ॥ गोपद जल वूडहि घटजोनी । सहज छमा बरु छाड़ छोनी ॥ १॥ मसक फूक मकु मेरु उड़ाई । होइन नृप-मद भरतहि भाईलखन तुम्हार सपथ पितु आना । सुचि सुबन्धु नहिँ भरत समाना॥२॥" इत्यादि भला! तब रामचन्द्रजी ऐसा सन्देशा कैसे कहलावेगे कि राज्य पाकर भरत नीति न त्यागेंगे । इस विरोधी अर्थ को अर्थ नहीं अनर्थ कहना चाहिये। अउर निबाहेहु भायप आई। करि पितु-मातु सुजन, सेवकाई । तात भाँति,तेहि रोखब राऊ । सोच मोर जेहि करइ न काऊ ॥३॥ और भाइयों के साथ भाईपन निवाहना, पिता-माता तथा सज्जनों की सेवकाई करना। हे तात ! राजा को उसी तरह रखना जिससे वे कभी मेरा सोच न करें ॥३॥ लखन कहे कछु बचन • कठोरा । बरजि राम पुनि मोहि निहोरा ॥ बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन-लरिकाई ngu लक्षमण ने कुछ कठोर वचन कहे, फिर रामचन्द्र जी ने उन्हें मना कर के से निहोरा किया। बार बार अपनी सौगन्द देकर कहा कि-हे तात ! लक्ष्मण. का लड़कपन न . है कहना॥४॥ ।