दो॰—जथाजोग सनमानि प्रभु, विदा किये मुनि-बृन्द।
करहिँ जोग जप जाग तप, निज आस्रमनि सुछन्द ॥१३४॥
प्रभु रामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान कर मुनि-मण्डली को विदा किया। वे सब अपने अपने आश्रमों में स्वतन्त्रता-पूर्वक योग, जप, यज्ञ और तप करते हैं ॥१३४॥
चौ॰—यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषें जनु नव-निधि घर आई॥
कन्द मूल फल भरि भरि दोना। चले रङ्क जनु लूटन सोना ॥१॥
यह ख़बर कोल किरातों ने पाई, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानों उनके घर में नवों निधि आ गई हो। कन्द, मूल और फल दोनों में भर भर कर चले, ऐसा मालूम होता है मानों कंगालों का झुंड सुवर्ण लूटने को दौड़ा जाता हो ॥१॥
कुबेर के नौ प्रकार के रत्न को निधि कहते हैं। उनके नाम ये हैं—"पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और वर्च्च"। निधि घर में आने से खुशी होती ही है तथा स्वर्ण की लूट सुन कर कँगले बेतहाशा दौड़ते हैं। यह दोनों 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है।
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहिँ पूछहिँ मगजाता॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई ॥२॥
उनमें जिन्हों ने दोनों भाइयों को देखा था, मार्ग जाते हुए उनसे दूसरे पूछते हैं। इस तरह रघुनाथजी की सुन्दरता कहते सुनते सब ने आकर रामचन्द्रजी को देखा ॥२॥
करहिँ जोहार भेँट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिँ अति अनुरागे॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक-सरीर नयन जल बाढ़े ॥३॥
सामने भेट रख कर प्रणाम करते हैं और बड़े प्रेम से प्रभु रामचन्द्रजी को देखते हैं। उनके शरीर पुलकित हो गये और आँखों में जल (प्रेमाश्र) बढ़ आये ॥३॥
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं करजोरी ॥४॥
रामचन्द्रजी ने सब को स्नेह में डूबा हुआ जान कर प्यारी वाणी कह कर सभी का सम्मान किया। प्रभु को बार बार प्रणाम कर हाथ जोड़ नम्रता से वचन कहते हैं ॥४॥
दो॰—अब हम नाथ सनाथ सब, भये देखि प्रभु पाय॥
भाग हमारे आगमन, राउर कोसलराय ॥१३५॥
हे नाथ! अब हम सब स्वामी के दर्शन पाकर सनाथ हुए! हे कोशलराज! आप का आगमन हमारे भाग्य से हुआ है ॥१३५॥