पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६१

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सोना ॥१॥ ५०० रामचरित मानस । दो-जथाजोग सनमोनि प्रभु, विदा किये मुनि-वृन्द । करहिं जोग जप जाग तप, निज ओखमनि सुछन्द ॥१३॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान कर मुनि-मण्डली को विदा किया। वे सब अपने अपने आश्रमों में स्वतन्त्रता-पूर्वक योग, जप, यक्ष और तप करते हैं ॥१३४॥ चौ०-यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हर जनु नव-निधि घर आई। कन्द मूल फल भरि भरि दोना । चले रक जनु लूटन यह खबर कोल किरातों ने पाई, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानों उनके घर में नव निधि भा गई हो । कन्द, मूल और फल दोनों में भर भर कर चले, ऐसा मालूम होता है मानों कंगालों का झुंड सुवर्ण लूटने को दौड़ा जाता हो ॥ १ ॥ कुवेर के नौ प्रकार के रत्न को निधि कहते हैं । उनके नाम ये हैं 'पद्म, महापद्म, ज, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और बच्च। निधि घर में आने से खुशी होती ही है तथा स्वर्ण की लूट सुन कर कैंगले येतहाशा दौड़ते हैं। यह दोनों 'उक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार' है। तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता । अपर तिन्हहिं पूछहिँ भगजाता। कहत सुनत रघुबीर निकाई । आइ सवन्हि देखे रघुराई ॥२॥ उनमें जिन्हों ने दोनों भाइयों को देखा था, मार्ग जाते हुए उनसे दूसरे पूछते हैं । इस तरह रघुनाथजी की सुन्दरता कहते सुनते सब ने आकर रामचन्द्रजी को देखा ॥२॥ करहिँ जोहार भेंट धरि आगे । प्रभुहि बिलोकहिँ अति अनुरागे । चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक-सरीर नयन जल बाड़े ॥३॥ सामने भेट रख कर प्रणाम करते हैं और बड़े प्रेम से प्रभु रामचन्द्रजी को देखते हैं। उनके शरीर पुलकित हो गये और आँखों में जल (प्रेमान) बढ़ आये ॥ ३॥ राम सनेह मगन सब जाने । कहि प्रिय बचन सकल सनमाने । प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं करजोरी ॥४॥ रामचन्द्रजी ने सब को स्नेह में डूबा हुआ जान कर प्यारी वाणी कह कर सभी का सम्मान किया। प्रभु को बार बार प्रणाम कर हाथ जोड़ नम्रता से वचन कहते हैं ॥४॥ दो-अब हम नाथ सनाथ सब, भये देखि प्रभु पाय ।। भाग हमारे आगमन, राउर कोसलराय ॥ १३५ ॥ हे नाथ ! अब हम सव स्वामी के दर्शन पाकर सनाथ हुए ! हे कोशखराज ! भाप का भागमन हमारे भाग्य से हुआ है । १३५॥