पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५७

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. ४९६ रामचरित मानस । तुम्हहिँ छाडि गति दूसरि नाही । राम बसहु तिन्ह के मन माहीं। जननी सम जानहि पर-नारी। धन पराव बिष ते विष भारी ॥३॥ ओप को छोड़ कर जिन्हें दूसरे का सहारा नहीं, हे रामचन्द्रजी! आप उनके मन में बसिये । जो पराई स्त्री को माता समान जानते हैं और पराये धन को विप से भी बढ़ कर विष समझते हैं ॥३॥ पर-स्त्री-उपमेय माता-उपमान, सम-वाचक और समझना-धर्म 'पोपमो अलंकार है। जे हरषहिँ पर-सम्पति देखी। दुखित हाहिँ पर-बिपति-बिसेखी॥ जिन्हहिं राम तुम्ह प्रान-पियारे । तिन्ह के मन सुस-सदन-तुम्हारे॥४॥ जो दूसरे की सम्पति देखकर प्रसन्न होते हैं और पराये की विपशि से विशेष दुःखित होते हैं। हे रामचन्द्रजी । जिन्हें आप प्राण-प्यारे हैं, उनके मन आप के लिये अच्छे मन्दिर हैं ॥an दो-स्वामि-सखा-पितु-मातु-गुरु, जिन्ह के सब तुम्ह तात । मन-मन्दिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ.मात ॥१३०॥ हे तात! जिनके स्वामी, मित्र, पिता, माता भौर गुरु सव श्राप ही हैं। उनके मन रूपी मन्दिर में सीताजी के सहित देने भाई वसिये ॥१३०॥ चौ०-अवगुन तजि सब के गुन गहहीँ । विप्र-धेनु-हित सङ्कट सहहीं ॥ नीति निपुन जिन्हकइ जगलीका। घरतुम्हारतिन्हकरमन नीका ३१॥ अवगुण त्याग कर सबके गुण ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गैया के कल्याण के लिये सङ्कट सहते हैं । नीति-कुशलता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका मम पाप का सुन्दर भवन है ॥१॥ गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा । जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा । रामभगत प्रिय लागहिँ जेही । तेहि उर बसहु सहित बैदेही ॥२॥ जो गुण श्राप का और दोषों को अपना समझते हैं, जिनको सव तरह से आप ही का भरोसा है। जिनको रामभक्त प्यारे लगते हैं, विवह नन्दिनी के समेत उनके हृदय में जाति पाँति धन धरम बड़ाई । प्रिय-परिवार सदन-सुखदाई । सब तजि तुम्हहिँ रहइ लउ लाई । तेहि के हृदय रहहु रघुराई ॥३॥ जो जाति पाँति, धन और धर्म की बड़ाई, प्रिय-कुटुम्भ तथा सुखदायी पर सब को त्याग कर आँप ही में लव लगाये रहते हैं, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये ॥३॥ राजापुर की प्रति में सब तजि तुम्हहि रहइ उर ला पाठ है । यहाँ अर्थ होगा-"सब को त्याग कर आप ही में हृदय लगाये रहते हैं। बसिये ॥२॥ 1