पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३९

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रामचरित मानस । हुआ मानो महा दरिद्री पारस-पत्थर पा गया हो । सब कोई कहते हैं मानों प्रेम और परमार्थ दोनों शरीर धारण कर के मिलते हो ॥१॥ प्रेम और परमार्थ शरीरधारी नहीं है, यह कवि की कल्पनामात्र 'अनुत्तविषया वस्तू- प्रेक्षा अलंकार' है। बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा । लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥ पुनि सिय-चरन-धूरि धरि लीसा । जननि जानि सिसु दोन्हि असीसा॥२॥ फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों में लगा, उन्होंने प्रेम ले उमड़ कर उठा लिया। तब उसने सीताजी के चरणों की धूलि सिर पर धारण की, माताजी ने बालक समझ कर आशीर्वाद दिया ॥२॥ कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ पुदित लखि राम-सनेही। पियत नयन-पुट रूप-पियूखा । मुदित सुअसन पाइ जिमि भूखा ॥३॥ निषाद ने उस तपस्वी को डण्डवत किया, तपस्वी ने उसे रामचन्द्रजी का प्रेमी जान प्रसन्नता पूर्वक हदय से लगा लिया। वह वापस नेत्र रूपी दोने से छवि रूपी अमृत पान करता है, जैसे भूखा मनुष्य अच्छा भोजन पाकर प्रसन्न होता है ॥३॥ यहाँ तपस्वी के सम्बन्ध को यात समाप्त हुई, श्रव जहाँ से कथा-प्रसङ्ग छूटा है वहीं से फिर उठाते हैं। इस तपस्वी का नाम लेने में न जाने कविजी के हृदय में कौन सा गदभाव था, इसका जानना कठिन है। इसीले प्रायः लोग क्षेपक कह बैठते हैं कि प्रसङ्ग से बिलकुल मेल नहीं है। ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठये बन राम-लखन-सिय रूप निहारी। होहिं सनेह बिकल नर-नारी ॥४॥ ग्राम निवासी स्त्रियाँ आपस में कहती हैं, हे सखी । वे पिता-माता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे सुकुमार वालकों को वन में भेजा है ? रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के अप को देख कर स्त्री-पुरुष प्रेम से विकल हो जाते हैं ॥४॥ जो अत्यन्त सुकुमार सुहावने पुत्र और पुत्र-वधू राजमहल में रखने योग्य हैं, उन्हें बन में भेजना 'द्वितीय असङ्गति अलंकार' है। पूर्वार्द्ध की ठोक अली इसी काण्ड के स दोहे के नीचे, प्रथम चौपाई में वर्तमान है। दो०-तब रघुबीर अनेक विधि, सखहि सिखावन दीन्ह । राम-रजायसु सीस धरि, मवन गवन तेइँ कीन्ह ॥१११॥ तवरघुनाथजी ने मित्र-निषाद को वहुत तरह से सिखावन दिया। रामचन्द्रजी की मात्रा सिर पर धर कर यह अपने घर को चला ॥११॥ बालक ऐसे ॥