पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चले ॥३॥ रामचरितमानस । साथ लागि मुनि सिष्य बोलाये । सुनि मन मुदित पचासक आये ॥ सबन्हि राम पर प्रेम अपारा । सकल कहहिँ मग दीख हमारा ॥२॥ साथ जाने के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया. सुन कर मन में प्रसन्न हो पचासों श्राये। सभी का रामचन्द्रजी पर अपार प्रेम है, सब कहते हैं कि रास्ता हमारा देखा है ॥२॥ मुनि बटु चारि सङ्ग तथ दीन्हे । जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥ करि प्रनाम रिषि-आयसु पाई । प्रमुदित हृदय चले रघुराई ॥३॥ तब सुनि ने चार ब्रह्मचारियों को साथ में कर दिया, जिन्होंने अनेक जन्म पर्यन्त सारे सुकृत किये थे। ऋषि की प्राशा पाकर और प्रणाम करके प्रसन्न मन से रघुनाथजी वन को ग्राम निकट निकसहिं जब जाई। देखहि दरस नारि-नर धाई। होहि सनाथ जेनम-फल पाई। फिरहि दुखित मन सङ्ग पठाई ॥४॥ जब किसी गाँव के समीप होकर निकलते हैं, तब दर्शन के लिए दौड़ कर स्त्री पुरुष उन्हें देखते हैं । वे सनाथ हो जन्म फल पाकर मन को उनके साथ भेज धाप दुखित होकर लौट आते हैं ॥४॥ दो-बिदा किये बटु बिनय करि, फिर पाइ मनकाम । उतरि नहाये जमुन-जल, जो सरीर सम स्याम ॥१०॥ (यमुनाजी के किनारे पहुँच कर) उन ब्रह्मचारियों को विनती कर के विदा किया, वे मन वाञ्छित फल पाकर लौटे। पार होकर यमुना-जल में स्नान किया जो शरीर के समान श्याम है ॥१६॥ शरीर-उपमेय और यमुना-जल उपमान है, परन्तु यहाँ उलट कर उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान करना 'प्रथम प्रतीप अलंकार' है। चौ-सुनत तीर-बासी नर-नारी । धाये निज निज काज बिसारी ॥ लखन-राम-सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य घड़ाई ॥१॥ सुनते ही वीर के रहनेवाले स्त्री-पुरुष अपना अपना काम भूल कर दौड़े । लक्ष्मणजी, राम- चन्द्रजी और सीताजी की सुन्दरता को देख कर अपने भाग्य को बड़ाई करते हैं ॥ १॥ अति लालसा सबहि मन माहीं । नाउँ गाउँ बूझत सकुचाही । जे तिन्हमहँबय-बिरिध सयाने । तिन्हकरि जति राम पहिचाने ॥२॥ नाम और ग्राम पूछने की सभी के मन में बड़ी लालसा है, किन्तु पूछने में सकुचाते हैं। उनमें जो वयोवृद्ध और चतुर थे, उन्होंने युक्ति करके रामचन्द्रजी को पहचान लिया ॥२॥ युक्ति यह कि निषादराज से इशारे से पूछ कर परिचय पा गये ।।