पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४७१ चौ०-गङ्ग बचन सुनि मङ्गल मूला । मुदित सीय सुरसरि अनुकूला ।। तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू । सुनत सूख मुख मा उर दाहू ॥१॥ महल के मूल गङ्गाजी के वचन सुन कर और उन्हें अनुकूल जान कर सीताजी प्रसन्न हुई। तब प्रभु रामचन्द्रजी ने गुह-निषाद से कहा कि तुम भी घर जानो, सुनते ही उसका मुख सूख गया और हृदय में बड़ा सन्ताप हुना॥१॥ दीन बचन गुह कह कर जोरी । बिनय सुनहु रघुकुल-मनि मारी॥ नाथ साथ रहि पन्थ देखाई। करि दिन चारि चरन-सेवकाई ॥२॥ गुह हाथ जोड़ कर दीन वचन कहने लगा-हे रघुवंशमणि ! मेरी प्रार्थना सुनिये । मैं स्वामी के साथ रह कर रास्ता दिखा चार दिन चरणों की सेवा कर के ॥२॥ जेहि बन जाइ रहब रघुराई । परन-कुटी मैं करबि सुहाई ॥ तब माहि कह जसि देव रजाई । सोइ करिहउँ रघुबीर-दुहाई ॥३॥ हे रघुराज ! जिस वन में जाकर आप रहेंगे, वहाँ मैं पत्तों की सुन्दर कुटी वना दूंगा। तब मुझ को जैसी श्राज्ञा दीजियेगा, दुहाई रघुनाथजी को-वही करूँगा ॥३॥ सहज सनेह राम लखि ताल । सङ्ग लोन्ह गुह हृदय हुलासू । पुनि गुह ज्ञाति बोलि सब लीन्हे । करि परितोष बिदा तब कीन्हे ॥४॥ उसके स्वामाविक स्नेह को देख कर रामचन्द्रजी ने साथ ले लिया, गुह मन में प्रसन्न हुआ। फिर गुह-निषाद ने सब जातिशलों को बुला लिया, उन्हें सन्तुष्ट करके तब विदा किया ॥ दो-तत्र गनपति सिव सुमिरि प्रभु, नाइ सुरसरिहि माघ । सखा अनुज सिय सहित बन, गवन कीन्ह रघुनाथ ॥१०४॥ तब गणेश और शिवजी का स्मरण गाजी को मस्तक नवा कर प्रभु रामचन्द्रजी मित्र निषाद, छोटे भाई और सीताजी के सहित वन को चले ॥१०॥ चौ०-तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू । लखन सखा सब कोन्ह सुपासू प्रात प्रातकृत करि रघुराई । तीरथराज दीख प्रभु जाई ॥१॥ (रामचौरा ले चल कर ) उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ, लक्ष्मणजी और मित्र निषाद ने सब तरह का सुपास किया । सबेरेप्रातः कर्म (शौच सन्ध्योपासनादि ) करके प्रभु रघुनथाजी ने जाकर तीर्थराज के दर्शन किये ॥१॥ 'प्रात' शब्द दो बार आया है, परन्तु अर्थ दोनों का भिन्न भिन्न है । एक प्रातःकाल का ज्ञापक है, दूसरा माताकम का 'यमक अलंकार है।