पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३१

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करना॥१॥ रामचरित मानस । दो०-बहुत कीन्ह प्रभु लखन सिय, नहि कछु केवट लेइ । बिदा कीन्ह करुनायतन , भगति बिमल बर दे ॥१०॥ प्रभु रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत प्राग्रह शिया परन्तु मल्लाह कुछ नहीं लेता है । तव दयानिधान रघुनाथजी ने उसको निर्मल भकि का वर देकर विदा किया ॥१०॥ चौ०-तब मज्जन करि रघुकुल नाथा । पूजि पारथिव नायउ माथा ॥ सिय सुरसरिहि कहेउ करजारी। मातु मनोरथ पुरउबि मारी ॥१॥ तब रघुकुल के स्वामी रामचन्द्र जी ने स्नान कर के पार्थिव की पूजा कर मस्तक नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़ कर गङ्गाजी से प्रार्थना की कि हे माता ! मेरी लालसा पूरी पति-देवर-सँग कुसल बहोरी । आइ करउँ जेहि पूजा तोरी। सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी । भइ तब बिभल बारि वर बानी॥२॥ पति और देवर के साथ फिर कुशल से आ कर जिसमें तुम्हारी पूजा का । प्रेम रस भरी सीताजी की विनती सुन कर तथ निर्मल जल से श्रेष्ठ वाणी दुई ॥२॥ जल के जीम नहीं जो बोल सके, बिना ( जिहारूपी) आधार के सुन्दर वाणी का रजित होना प्रथम 'विशेष अलंकार है। सूनुरिघुबीर प्रिया बैदेही । तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥ लोकप होहिं बिलोकत तोरे । ताहि सेवहिं सब सिधि कर जारे ॥३॥ हेरघुनाथजी को प्रियतमा विदेहनन्दिनी । सुनो, तुम्हारी महिमा संसार में किसको विदित नहीं है ? जिसको श्राप दयादृष्टि ले देखती हैं वे लोकपाल हो जाते हैं और सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े हुए श्राप की सेवा करती हैं ॥ ३ ॥ तुम्ह जो हमहि बडिबिनय सुनाई। कृपा कीन्ह माहिँ दीन्हि बड़ाई। तदपि देवि मैं देशि असीसा । सफल होन हित निज बागीसा ॥४॥ आपने जो मुझ से षड़ी विनती सुनाई है, वह कृपा करके मुझे बड़ाई दी है। हे देवि ! तो भी मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए आशीर्वाद दूंगी॥ ४॥ बड़ी बिनती सुना कर आपने कृपा करके मुझे बड़प्पन दिया, इन वाक्यों में 'कैतवा- पहति अलंकार' की ध्वनि है । देवि' शब्द दो बार आया है जो पुनरुक्ति सा जान पड़ता है, परन्तु पुनरुक्ति नहीं है। एक जानकीजी के लिए सम्बोधन और दूसरा देने का बोधक होने से "यमक अलंकार' है। दो०-प्राननाथ देवर सहित, कुसल कोसला आइ। पूजिहि सब मनकामना, सुजस रहिहि जग छाइ ॥१०३॥ प्राणनाथ और देवर के सहित आप कुशल से अयोध्या को लौटेगी । सारी मनोकामनाएँ पूरी होगी और संसार में सुन्दर यश फैला रहेगा ॥ १३ ॥