पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. १४६ रामचरित मानस । सुकृत, सुयश और परलोक नष्ट हो जाय पर राजा आप को बन जाने के लिए कभी न कहेंगे ॥२॥ अस बिचारि साइ करहु जो भावा । राम जननिसिख सुनि सुख पावा ॥ भूपहि बचन बान सम लागे । करहिं न प्राल पयान अमागे ॥३॥ ऐसा विचार कर जो अच्छा लगे वही कीजिये । माता का सिखावन सुन कर राम- चन्द्रजी सुस्ती हुए । राजा को वे वचन बाण के समान लगे, पर अभागे प्राण पयान नहीं करते हैं ॥३॥ लोग बिकल मुरछित नरनाहू । काह कंरिय कछु सूझ न काहू ॥ राम तुरतं मुनि-बेष बनाई। चले जनक जननिहि सिर नाई ॥४॥ राजा मूर्छित हो गये और लोग व्याकुल होकर सोचते हैं कि क्या करु? पर किसी को कुछ सूझता नहीं । रामचन्द्रजी ने तुरन्त मुनि का वेष बनाया और पिता-माता को सिर नवा कर चले ॥४॥ रामचन्द्रजी के वियोग से राजा का प्रारमविस्मृत्ति होकर निश्चेष्ट होना 'प्रलय सात्विक अनुभाव' है। लोगों का निरुपाय होकर पश्चाताप करना विषाद, दैन्यं, चप. लता, आवेग, मोह श्रादि सञ्चारीभाव है। दो०-सजि बन-साज-समाज सब, बनिता बन्धु समेत । बन्दि विप्र-गुरु-चरन प्रभु, चले करि सबहि अचेत ॥६॥ वन का सब सामान सज कर सीताजी और लक्ष्मण के सहित प्रभु रामचन्द्रजी ब्राह्मण और गुरु के चरणों में प्रणाम कर सम्पूर्ण समाज को अचेत कर के चले ॥६॥ चौ०–निकसि बसिष्ठ द्वार भये ठाढ़े । देखे लोग बिरह दव दाढ़े ॥ कहिप्रियवचन सकल समुझाये। विप्र-बन्द रघुबीर बोलाये ॥१॥ राजमहल से निकल कर वशिष्ठजी के दरवाजे पर खड़े हुए, देखा कि सब लोग विरह की अग्नि से झुलस रहे हैं । प्रिय वचन कह कर सव को रघुनाथजी ने समझाया और ब्राह्मण-समूह को बुलाया ॥१॥ गुरु सन कहि बरषासन दीन्हे । आदर-दान-बिनय बस. कीन्हे ॥ जाचक दान सन्तोषे । मीत पुनीत प्रेम परितोषे ॥२॥ गुरुजी से कह कर वर्ष भर के लिए भोजन दिया और श्रादर, दान, विनती से उन्हें वश किया। मङ्गनों को दान सम्मान से सन्तुष्ट कर के मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया ॥२॥ दासी दास बोलाइ बहोरी । गुरुहि सौपि बोले कर जोरी ।। सब के सार सँभार गोसाँई । करबि जनक-जननी की नाई ॥३॥ फिर दास दासियों को बुला कर गुरुजी को सपुर्द कर के हाथ जोड़ कर बोले- हे स्वामिन् । सब की रक्षा और बचाव पिता-माता की तरह करते रहियेगा ॥३॥