पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४२६ चौ०- मैं पुनिकारप्रवानपितुबानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी ॥ दिवस जात नहिँ लागिहि बारा । सुन्दरि सिखवन सुनहु हमारा ॥१॥ हे सयानी, सुन्दर मुखवाली ! सुनो, फिर मैं भी तेरे पिता की बात सत्य कर के तुरन्त लौट आऊँगा । दिन जाते देरी न लगेगी, हे सुन्दरी ! हमारा सिखावन सुनो ॥१॥ १४ वर्ष के दिन को इस ढङ्ग से कहना मानों जाने के साथ ही लौटाना होगा, चपला- तिशयोक्ति की ध्वनि है। जौँ हठ करहु प्रेम-त्रस बामा । तो तुम्ह दुख पाउब परिनामा ॥ कानन कठिन भयङ्कर मारी । घोर धाम हिम बारि बयारी ॥२॥ है वामा ! यदि प्रेम के अधीन होकर हठ करोगी तो तुम अन्त में दुः॥ पाोगी। वन बड़ा कठिन भयकर होता है उसमें विकराल घाम (गरमी) और जाड़ा पड़ता है, वर्षा होती है तथा लू चलती है ॥२॥ कुस कंटक मा काँकर नाना । चलब पयादेहि बिनु पदनाना । चरन-कमल मृदु-मज्ज तुम्हारे । मारग अगम भूमिधर भारे ॥३॥ रास्ते में कुशा, काँटे और कई तरह तरह के रहते हैं, बिना जूते के पैदल चलना होगा। तुम्हारे चरण-कमल सुन्दर कोमल हैं, किन्तु मार्ग दुर्गम और बड़े बड़े पर्वत हैं ॥३॥ कन्दर खोह नदी नद नारे । अगम अगाध न जाहि निहारे । भालु बाघ बुक केहरि नागो । करहिँ नाद सुनि धीरज भागा ॥४॥ गुफाएँ, पहाड़ों के गड्ढे, छोटी नदियाँ, बड़े नद और नाले ऐसे दुर्गम गहरे मिलेंगे जो देखें नहीं जाते (भयावने होते हैं)। वहाँ मालू', बाघ, विगवा, सिंह और हाथी शब्द करते हैं, जिसको सुन कर धीरज भाग जाता है ॥४॥ 'नाग' शब्द सर्प और हाथी दोनों का बोधक होने पर भी 'नाद' शब्द ले अर्थप्रकरण 'द्वारा एकमात्र 'हाथी' की अभिधा है, सपः की नहीं, क्योंकि गर्जन (घोर शब्द ) करने में साँप असमर्थ है। सर्प का वर्णन नाचे आया है। दो०- भूमि-सवन बलकल-बसन, असन कन्द फल मूल । ते कि सदा सब दिन मिलहिँ, सबइ समय अनुकूल ६२ धरती पर सोना, पेड़ों की छाल का वस्त्र, कन्द मूल और फल का भोजन होगा। वे भी पया सदा सय दिन मिलते हैं ? सभी समय के अनुकूल प्राप्त होते हैं ॥६॥ सभा की प्रति में 'समय समय अनुकूल' पाठ है। चौ०-नर-अहार रजनीचर चरहीं। कपट-बेष बिधि कोटिक करहीं। लागइ अति पहार कर पानी । बिपिन बिपति नहि जाइ बखानी॥१॥ मनुष्य के खानेवाले वहाँ राक्षस फिरते हैं जो छल से करोड़ों तरह के रूप बना लेते हैं।