पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १०९ रामचन्द्रजी की सीधी बात को उसी तरह केकयी टेढ़ी जानती है, जैसे पानी समान रहने पर भी जोक टेढ़ो चाल चलती है। इसमें पानी का दोष नहीं, जोंक की चाल ही वक होती है। सभा की प्रति में 'चला जोक जिमि चक्र गति' पाठ है। चौ०-रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपद-सनेह जनाई ॥ सपथ तुम्हार भरत कइ आना । हेतु न दूसर मैं कछु जाना ॥१॥ रामचन्द्रजी का रुख पा कर रानी केकयी प्रसन्न हुई और कपट का स्नेह जना कर बोली। तुम्हारी शपथ और भरत की सौगन्द है, दूसरा कारण मैं कुछ नहीं जानती ॥१॥ केकयी भूठा छोह प्रकट कर अपनी वचन चातुरी से आन्तरिक डाह छिपा कर राम- चन्द्रजी को ठगना चाहती है। उस की बातों में अपना मतलब गाँठने की चतुराई भरी है, जिसमें रामचन्द्र को वनयाना अस्वीकृत न हो जाय । इसीले प्रत्यक्ष में उनकी बड़ाई करने में। 'युक्ति अलंकार' है। तुम्ह अपराध जोग नहिँ ताता । जननी जनक बन्धु सुख दाता । राम सत्य सब जो कछु कहहू । तुम्ह पितु-मातु बचन-रत अहहू ॥२॥ हे पुत्र ! तुम अपराध के योग्य नहीं हो, तुम तो माता, पिता और भाइयों को सुख देनेवाले हो। हे रामचन्द्र ! जो कुछ कहते हो वह सब सत्य है, तुम पिता-माता के वचन (आशा- पालन) में तत्पर हो ॥२॥ पितहि बुझाइ कहहु बलि साई । चौथे पन जेहि अजस न होई ॥ तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहि दीन्हे । उचित न तासु निरादर कीन्हे ॥३॥ मैं तुम्हारी बलैया नेती हूँ, अपने पिता को वही समझा कर कहिये जिससे वृद्धावस्था में कलक न हो। जिस सुकत ने तुम्हारे समान सुयोग्य पुत्र दिया है, उसका अनादर करना (राजा को) उचित नहीं है ॥३॥ लागहि कुमुख बचन सुभ कैसे । मगह गयादिक तीरथ जैसे ॥ रामहि मातु बचन सब भाये। जिमि सुरसरि-गत सलिल सुहाये ॥४॥ उसके कुत्सित मुख से ये वचन कैसे शुभ लगते हैं, जैसे मगह (अपुनीत ) देश में गयादिक तीर्थ स्थान पवित्र हैं। रामचन्द्र जी को माता के सर वचन इस तरह अच्छे लगे जैसे गहाजी में मिलने पर सभी जल पवित्र हो जाते हैं ॥४॥ दो-गइ सुरछा रामहि सुमिरि, नृप फिरि करवट लीन्ह । सचिव राम आगमन कहि, बिनय सम यसम कीन्ह ॥४३॥ राजा को मूर्छा दूर हुई, उन्होंने रामचन्द्रजी का स्मरण कर के फिर कर करवट लिया। मन्त्री ने रामचन्द्रजी का आना कह कर समयानुकूल विनती की ॥ ४३ ॥' '३२