पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६७

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रामचरित-मानस । gon . दो०-मुनि-जन मिलन बिसेष बन, सबहि भाँति हित मोर। तेहि मह पितु आयसु बहुरि, सम्मत जननी तोर ॥१॥ अधिक तर वन में मुनि समूह का मिलाप होगा जिससे सभी भाँति मेरी भलाई है। उसमें पिताजी को साक्षा, फिर हे माता! तेरी सम्मति है (अवश्य ही इस माहा-पालन में अपने को मैं धन्य मानता हूँ) uen चन जाने के लिए मुनियों का मिलाप एक ही कारण पर्याप्त है, उस पर पिता को आमr और माता की सम्मति अन्य प्रपल हेतुत्रों का कथन द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। चौo-मरत प्रान-प्रियपावहिं राजू । विधिसयविधिमाहिसनमुखाजू॥ जौँ न जाउँ बन ऐसेहु काजा । प्रथम गनिय माहि मूढ़ समाजा ॥१२. प्राण-प्यारे भरत राज्य पावेंगे, आज सब तरह से ब्रह्मा मुझ पर प्रसन्न हैं। यदि ऐसे' काम के लिए भी मैं बम को न जाऊँ तो मूखों के समाज में पहले मेरी गिनती काली चाहिए। सेवहि अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहि बिष माँगी। लेउ न पाइ अस्त्र समउ चुकाही देखु बिचारि मातु मन माहीं ॥२॥ जो कल्पवृक्ष को छोड़ कर एरण्ड (रेड) की सेवा करते हैं और अमृत याग कर विष माँग लेते हैं। हे माता! तू अपने मन में विचार कर देख कि वे भी ऐसा समय पाकर न चूकेंगे॥२॥ अम्ब एक दुख मोहि बिसेखी । निपट बिकल नर-नायक देखी ॥ थोरिहि बात पितहि दुख भारी । होति प्रतीति न मोहि महतारी ॥३५ हे माता! मुझे एक बात का बड़ा दुःख-नरनाथ को नितान्त व्याकुल देख कर हो रहा है कि इस थोड़ी सी बात लिए पिताजी को भारी दुःख क्यों दुआ? माता जी ! इसीसे सुझे विश्वास नहीं होता है ॥३॥ राउ धीर गुन-उदधि अगाधू । मा मोहि ते. कछु बड़ अपराधू । जा रौं माहि न कहत कछु राऊ । भारिसपथ तोहि कहु सतिभाऊ ॥४॥ राजा धीरवान और गुण के समुद्र हैं, मुझ से कुछ बड़ा अपराध हुमा है जिससे राजा मुझ से कुछ कहते नहीं हैं, तुझे मेरी सौगन्य है सच कह ॥४॥ सभा की प्रति में 'ता ते मोहि न कहत कछु राऊ पाठ है। दो सहज सरल रघुबर बचन, कुमति कुटिल करि जान । चलई जॉक जल बक्र-गति, जद्यपि सलिल समान ॥१२॥ रघुनाथजी के स्वाभाविक सोधेवचनों को उस कुबुद्धि ने टेढ़ा ही कर के ससझा । जोक जल में टेढ़ी चाल चलती है, यद्यपि पानी समान ही रहता है ॥ ४२ ॥