पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५५

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रामचरित मानस । अवध उजारि कोन्हि कैकई । दीन्हसि अचल बिपति के नेई ॥५॥ फेकई ने अयोध्यो को उजाड़ दिया और इसने अचल विपत्ति की नींव की ॥५॥ दो०-कवने अवसर का मयत, गयउँ नारि बिस्वास । जोग-सिद्धि-फल समय जिमि, जतिहि अबिदा नास ॥२॥ फिस समय में और क्या हो गया ! मैं स्त्री का विश्वास करने से इस पुरा दशा को पहुँचा कि जैसे योग की सिद्धि का फल पाने के समय संन्यासी को अविधा नष्ट कर देती है ॥२६॥ सभा की प्रति में गयउ नारि विश्वास' पाठ है और उसी के अनुसार अर्थ भी किया गया है। परन्तु जब गोस्वामीजी की हस्तलिखित प्रति में 'गया' पाठ है, तब प्रधानता भन्य को नहीं मिल सकती। चौ०-एहिविधि राउ मनहि मन झाँखा।देखि कुभाँति कुमति मन माया। • भरत कि राउर पूत न हाहीं । आनेहु माल बेसाहि कि माहीं ॥१॥ इस तरह राजा मन ही मन बहुत दुःखी हो कर पछताते हैं, यह देख कर वह दुष्ट बुद्धि चेतरह हृदय में क्रोधित होकर बोली । क्या भरत आप के पुत्र नहीं हैं ? उन्हें मोल खाये हो, या कि मुझे खरीद कर ले आये हो॥ 'मोल और बेसाहि शब्द पर्यायवाची हैं, इससे पुनरुक्ति का आभास है, परन्तु विचारने से 'मोल' भरत के लिए और 'साहना अपने लिए कहा, 'पुनरुक्तिवदाभास अलंकार' है। काकु से यह प्रदाट होना कि भरत भी तुम्हारे पुत्र हैं और मैं भी पटरानी हूँ 'तुल्यंप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है। जो सुनि सर अस लाग तुम्हारे । काहे न बोलहु बचन संभारे । देहु उत्तर अरू करहु कि नाहीं। सत्य सन्ध तुम्ह रघुकुल मोही ॥२॥ जो सुन कर तुम्हें वाण ऐसा लगा है, संभाल कर बात क्यों नहीं बोलते हो। उत्तर को और या कि नहीं करो, तुम रघुवंशियों में सषी प्रतिक्षावाले हो ॥२॥ देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहु सत्य जग अपजस लेहू.॥ सत्य सराहि कहेहु बर देना । जानेहु लेइहि माँगि चबेना ॥३॥ आप हो ने देने को कहा, चाहे अब मत दो, सत्य को त्याग कर संसार में अपंकीर्टि लेओ । सत्य की सराहना फर के वर देने को कह चुके, क्या जानते थे कि चबेना माँग कर सिविदधीचि बलि जो कछु भाखा । तनु धन तजेउ बचनः पन राखा अति कटु-बचन कहति कैकेई । मानहुँ लोन जरे पर देई. ॥४॥ राजा शिवि, दधीचि और वलि ने जो कुछ कहा शरीर तथा धन त्याग कर अपने पवन की प्रतिक्षा को निचाहा । केकयो अत्यन्त कड़वी बात कहती है, ऐसा मालूम होता है मानों जले घाव पर नमक डालवी हो ॥४॥ लेगी१॥३॥