पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कुमतिहि कसि कुबेषता ‘फाबी। अन-अहिवात सूच जनु भाबी ॥ जाइ निकट नृप कह मृदु बानी। प्रान-प्रिया केहि हेतु रिसानी ॥४॥ उस फुबुद्धि को कुचेषता (बुरा रूप धरना) कैसी सौह रही है मानो होनहार विधवापन की सूचना देता हो । समीप में जा कर राजा कोमल वाणी से बोले कि हे प्राणवल्लभे ! तू किस कारण कुपित हुई है ॥४॥ हरिगीतिका- छन्द । केहि हेतु शनि रिसानि परसत, पानि पतिहि निवारई। मानहुँ । सरोष भुअङ्ग-आसिनि, बिषम भाँति निहारई । दोउ बासना-रसना दसन बर, मरम ठाहर देखई। तुलसी नृपति भवितब्यता-बस, काम-कौतुक लेखई ॥१॥ है रानी! किस लिये क्रोधित हो, (यह कह कर राजा ने उसे हाथ से स्पर्श किया,पर वह) पति के हाथ को हटा कर उनकी ओर देखने लगी। ऐसा मालूम होता है मानों क्रोध से भरी साँपिन टेढ़ी निगाह से निहारती हो। दोनों बरदान माँगने की इच्छा दो जीभ हैं और दोनों वर दाँत है और काटने के लिये मर्म स्थान देख रही है । तुलसीदास जी कहते हैं कि राजा होनहार के अधीन हैं और काम-विनोद लिखना निमित्तमात्र है॥१॥ केकयी और सरोष नागिन, वर माँगने की इच्छा और जीभ, वरदान और दाँत परस्पर उपमेय उपमान हैं। झुद्ध हुई साँपिन भीषण-दृष्टि से देखती ही है। यह 'उक्तविषया वस्तू. स्प्रेक्षा अलंकार' है। असली कारण होनहार है, पर उसे न वर्णन कर राजा को काम के अधीन कहा गया जो निमित्त मात्र है । यह 'अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार है। सो०-बार बार कह राउ, सुमुखि सुलोचनि पिक-बचनि। कारन मोहि सुनाउ, गज-गामिनि निज कोप कर ॥२५॥ राजा बार बार कहते हैं कि हे सुमुखो! हे सुनयनी! हे कोंकिल वयनी ! हे गजगामिनी ! अपने क्रोध का कारण मुझे सुना ॥२५॥ चौ-अनहित तार प्रिया केइ कीन्हा । केहि दुइ सिर केहिजम चह लान्हा। कहु केहि रङ्कहि करउँ नरेसू । कहु केहि पहि निकासउँ देसू॥१॥ हे प्रिये ! किसने तेरा अनिष्ट किया, किसको दूसरा सिर हुआ है. और किसको यमराज लेना चाहते हैं ? कह तो सही, किस वरिद्र को राजा बनाऊँ और किस राजा को देश से बाहर निकाल हूँ ॥१॥