पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ३९ बिपति बीज बरपा-रितु चेरी । भुइँ भइ कुमति कैकई केरी ॥ पाइ कपट-जल अङ्कर जामा । बर दोउ दल दुख-फल परिनामा ॥३॥ विपत्ति रूपी बीज रोपण के लिए केकयी की कुबुद्धि भूमि रूपिणी हुई और चेरी मन्थरा 'वर्षा-ऋतु है । कपट रूपी जल को पाकर आँखुमा निकला, दोनों वरदान पत्ते हैं और अन्त में दुःख रूपी फल लगेगा ॥३॥ वर्षा ऋतु में जिस प्रकार वर्षा होने से वोज-रोपण होकर श्रङ्कुर निकलता है उसका मन्धरा केकयी की कुबुद्धि पर साझोपाज रूपक वाँधा गया है । यह साङ्ग रूपक अलंकार है । कोप-समाज साजि सब सोई। राज करत निज कुमति बिगोई ॥ राउर नगर कोलाहल होई । यह कुचालि कछु जान न कोई ॥४॥ कोप का सब समाज सज कर सोई है, राज्य करते हुए अपनी कुबुद्धिसे सर्वनाश कर डाला । राजमहल और नगर में हल्ला हो रहा है, इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता ॥४॥ प्रसाबल से 'राउर 'शब्द महल का बोधक है, न कि श्राप का। दो०-प्रमुदित पुर नर नारि सब, सजहिं सुमङ्गलबार । एक प्रबिसहि एक निर्गमहि, भीर भूप-दरबार ॥२३॥ नगर के सब स्त्री-पुरुष सुन्दर मालाचार सजते है, कोई भीतर जाता है और कोई बाहर आता है, इस तरह राजा के दरबार में भीड़ हुई है अर्थात् आने जानेवालों का तांता लगा हुआ है ॥२३॥ सब के हृदय में राज्योत्सव की प्रसन्नता छाई हुई हर्ष संचारी भाव है। चौ०-बालसखा सुनि हिय हरषाही । मिलि दस पाँच राम पहिँ जाहीं ॥ प्रभुआदरहिँ प्रेम पहिचानी । पूछहिँ कुसल-षेम मृदु बानी ॥१॥ 'बाल-मित्र राज-तिलक का समाचार) सुन कर हृदय में प्रसन्न होते हैं और इस पाँच मिल कर रामचन्द्रजी के पास जाते हैं। उनके प्रेम को पहचान कर प्रभु रामचन्द्रजी आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल-क्षेम पूछते हैं ॥१॥ फिरहिँ भवन प्रिय आयसु पाई । करत परसपर राम बड़ाई। को रघुबीर सरिस संसारा। सील सनेह निबाहनिहारा ॥२॥ प्यारे रामचन्द्रजी की प्रामा पाकर घर को लौटते हैं और आपस में रामचन्द्रजी की बड़ाई करते हैं कि रघुनाथजी के समान संसार में शील और स्नेह का निबाहनेवाला कौन है। कोई नहीं है ) ॥२॥ जेहि जेहि जोनि करम-बस भ्रमहीं। तहँ तह ईस देहु यह हमहीं । सेवक हम स्वामी सिय-नाहू । होउ नात एहि आर निबाहू. ॥३॥ हे ईश्वर ! हम जिस जिस योनि में कमे के पशनमते फिरें, वहाँ वहाँ यही दीजिये कि छम सेवक हो और सीतानाथ स्वामी हो, बस इसी ओर माता पूरा हो ॥३॥