पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४३४

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ३७५ किया। फिर सीताजी के सहित गुरु के पाँव पर पड़े और कमल के समान हाथों को जोड़ कर रामचन्द्रजी बोले ॥२॥ षोडशोपचार की पूजा वेद में इस प्रकार कही है-आवाहान, श्रासन, अर्ध्य, पाथ, आचमन, स्नान, वस्त्र, चन्दन,' पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, भारती, इक्षिणा, प्रदक्षिणा और विसर्जन । जिनका नित्य आवाहन और विसर्जन नहीं होता, उनका उस स्थान में स्वागत एवम् शयन होता है। सेवक सदन स्वामि आगमनू । मङ्गल-मूल अमङ्गल-दमनू॥ तदपि उचित जन बोलि समीती । पठइय काज नाथ असि नीती ॥३॥ घद्यपि सेवक के घर में स्वामी का आना मङ्गल का मूल और अमङ्गल का नाश करने- वाला है। तथापि हे नाथ ! नीति तो ऐसी है कि कार्य के लिए जन को प्रीति के साथ अपने समीप बुलवा भेजना उचित था ॥३॥ प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू । भयउ पुनीत आजु यह गेहू आयसु होइ सो करउँ गोसाँई । सेवक लहइ स्वामि सेवकाई ॥४॥ प्रभो! आपने अपना प्रभुत्व (साहिबी) छोड़ कर मुझ पर कृपा की, आज यह घर पवित्र हो गया। हे स्वामिन् ! जो आशा हो वह क6, जिसमें सेवक स्वामी की सेवकाई को पावे ॥४॥ दो-सुनि सनेह · साने बचन, मुनि रघुबरहि प्रसंस। राम कस न तुम्ह कहहु अस, हंस-बंस-अवतंस ॥६॥ इस प्रकार प्रेम से सने हुए वचन सुन कर वशिष्ठ-मुनि रघुनाथजी की बड़ाई करके छोले । हे रामचन्द्र ! आप सूर्य कुल के भूषण हैं, फिर ऐसा क्यों न कहें ? ॥६॥ चौ० बरनि राम गुन सील सुभाऊ । बोले प्रेम पुलकि मुनिराज ॥ भूप सजेउ अभिषेक-समाजू । चाहत देन तुम्हहिँ जुबराजू ॥१॥ रामचन्दजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करके मुनिराज प्रेम पुलकित है। कर घोले । राजा ने राज्याभिषेक का सामान सजवाया है, वे आपकी युवराज-पद देना चाहते हैं ॥१॥ राम करहु सब सज्जम आजू । जौँ विधि कुसल निबाहइ काजू ॥ गुरु सिख देइ राय पहिँ गयऊ । राम हृदय अस बिसमय भयऊ ॥२॥ हे रामचन्द्र ! आज से आप सब संयम (ब्रह्मचर्यादि व्रत पालन ) कीजिये, जो विधाता कुशल से कार्य पूरा करे (ता.उत्तम है)। गुरुजी शिक्षा देकर राजा के पास गये और राम- चन्द्रजी के वय में वह सुन कर आश्चर्य दुओं ॥२॥ ।