पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ३६७ वंशस्थविलम्-वृत्त । प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवास दुःखतः । मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मज्जुलमङ्गल प्रदा ॥२॥ जो रघुनाथजी के मुख-कमल की शोभा राज्याभिषेक होने की भाशा से प्रसन्नता को नहीं प्राप्त हुई और न वनवास के दुःख से मलिन हुई, वह मेरे लिये सदा सुन्दर मङ्गल की देनेवाली हो ॥२॥ सभा की प्रति में 'मम्ला' पाठ है। इन्द्रवजा-वृत्त । नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् । पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंश नाथम् ॥३॥ नील-कमल के समान श्याम जिनके कोमल अझ है और वाम भाग में सीताजी सुशो- मित हैं। जिनके हाथों में सुन्दर धनुष और श्रेष्ठ बाण हैं, उन रघुकुल के स्वामी राम- चन्द्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥३॥ दो-श्रीगुरु-चरन-सरोज-रज, निज-मन-मुकुर सुधारि । बरनउँ रघुबर-बिमल जस, जो दायक फल-चारि ॥१॥ श्रीगुरू महाराज के चरण-कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को सुधार कर रघुनाथजी का निमल यश वर्णन करता हूँ जो चारों फल का देनेवाला है। इस दोहे में प्रस्तुत अर्थ के सिवा यह अर्थ भी निकलता है कि अयोध्याकाण्ड में विशेष रूप से भरतजी का चरित्र वर्णन करना है, इसलिए मन-मुकुर को दोबारा स्वच्छ करते हैं 'मुद्राल कार' है। चौ०-जब तें राम ख्याहि घर आये । नित नव मङ्गल मेोद बधाये ॥ भुवन चारि-दस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरहिं सुख-बारी ॥१॥ जब से रामचन्द्रजी विवाह कर के घर आये तब से नित्य नये मझल हो रहे हैं और आनन्द की दुन्दुभी बजती है। चौदहों लोक रूपी भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी बादल सुख रूपी जल की वर्षा करते हैं ॥१॥ बालकाण्ड के मानस निरूपण में कह आये हैं कि सातों काण्ड इस सरोवर की सात सीढ़ियाँ हैं। तोलाब की निसेनियाँ परस्पर जुड़ी रहती है, वैसे ही प्रत्येक काण्डों में कथा प्रसङ्ग का मीलान जोड़ है। जैसे~बालकाण्ड में आये व्याहि राम घर जब तें। बसे अनन्द अवध सब तब ते" कह कर काण्ड की समाप्ति की गई और जब ते राम व्याहि घर आये। नित नव मङ्गल मोद वधाये' वही बात कह कर अयोध्याकाण्ड का प्रारम्भ करना जोड़ है।