पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४२१

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रामचरित मानस । दो०-मङ्गल मोद उछाह नित, जाहिँ दिवस एहि भाँति । उमगी अवध अनन्द भरि, अधिक अधिक अधिकात्ति ॥३५॥ नित्य मङ्गल, आनन्द और उत्साह में इसी तरह दिन वीतते जाते हैं। अयोध्या प्रानन से भर कर उमड़ पड़ी, वह (श्रानन्द) अधिक अधिक बढ़ता जाता है ॥ ३५॥ चौ०-सुदिन साधि कल कङ्कन छोरे । मङ्गल माद बिनोद न थोरे ॥ नित नव सुख सुर देखि सिहाहीं। अवधजनम जाचहि बिधि पाहीं॥१॥ सुन्दर दिन (शुभ मूह) शोध कर मनोहर करण खोले गये, महल, अानन्द और खेल- तमाशे कम नहीं हुए अर्थात् बड़ा उत्सव मनाया गया । नित्य नया सुख देख कर देवता सिहाते हैं और ब्रह्माजी से अयोध्या में जन्म पाने की याचना करते हैं ॥१॥ कङ्कन-एक धागा जिसमें सरसों आदि की पुटली पीले कपड़े में बाँध कर एक लोहे की मुंदरी के साथ विवाह के समय से कुछ पहले दुलह दुलहिन के हाथ में रक्षार्थ बाँधते हैं, उसको कङ्कण कहते हैं। बिस्वामित्र चलन नित चहहीं। राम-सप्रेम-विनय-वस रहहीं। दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ । देखि सराह महा-मुनि-राज ॥२॥ विश्वामित्रजी नित्य ही चलना चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनती के वश में हो कर रह जाते हैं । राजा दशरथजी का दिन दिन सौगुना प्रेम देख कर महा मुनिराज बड़ाई करते हैं ॥२॥ सभा की प्रति में 'राम-सनेह विनय-यस रहहीं' पाठ है। माँगत बिदा राउ अनुरागे । सुतन्ह समेत ठाढ़ भये आगे ॥ नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी । मैं सेवक समेत विश्वामित्रजी के षिदा माँगते समय राजा प्रेम में सराबोर हो गये, पुत्रों सहित सामने सड़े हुए और वोले-हे नाथ ! यह सारी सम्पत्ति आप की है और मैं पुत्र तथा रानियों समेत श्राप का सेवक हूँ ॥३॥ गुटकामे सुत-चारी' पाठ है। करव सदा लरिकन पर छोहू । दरसन देत रहब मुनि मोहू । अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न धानी ॥४॥ सदा लड़कों पर छोह कीजिएगा और मुझे दर्शन देते रहियेगा। ऐसा कह कर राजा, पुत्र और रानियों के सहित पाँव पर गिर पड़े, मुख से वचन नहीं निकलता है ।। ५ ॥ प्रेमोल्लास से वाणी का रुक जाना स्वरमा सात्विक अनुभाव है। नारी ॥३॥