पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४०१

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३४२ रामचरित मानस । दो-रूप-सिन्धु सब बन्धु लखि, हरिष उठेउ निवासु । करहिँ निछावरि आरती, महा-मुदित मन सासु ॥ ३३५ ॥ शोभा के समुद्र सब भाइयों को देख कर रनिवास प्रसन्न हो उठा । सामुये भत्यन्त हर्षित हृदय से भारती कर के न्योछावर करती है ॥ ३३५ ॥ कुँघरों को देख फर प्रेम से चित्त का प्रसन्न होना 'हर्ष सञ्चारीमार है। चौ० देखि राम छबिअति अनुरागीं। प्रेम-विवस पुनि पुनि पद लागी । रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेह बरनि किमि जाई ॥१॥ रामचन्द्रजी की छवि को देख कर अत्यन्त प्रेम-पूर्ण हो प्रीति के घश पार यार पायों में लग रही हैं । हृदय में प्रीति छा गई है इससे लज्जा नहीं रह गई, बद स्वाभाविक स्नेह किस तरह वर्णन किया जा सकता है॥१॥ भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाये । छरस असन अति हेतु जै वाये । बोले राम सुअवसर जानी । सील-सनेह-सकुच मय यानी ॥२॥ भाइयों के सहित उवटन कर के स्नान कराये और बड़ी प्रीति से पट रस भोजन करवाये । अच्छा समय जान कर रामचन्द्रजी शील, स्नेह और लज्जा भरी वाणी से बोले ॥२॥ रखना ॥३॥ राउ अवधपुर चहत सिधाये। विदा होन हम इहाँ पठाये ॥ मातु मुदित-मन आवसु देहू । बालक जानि करव नित नेहू ॥३॥ राजा अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, मैं विदा होने के लिए यहाँ भेजा है। हे माता ! प्रल मन से श्राशा दीजिए बार मुझे चालक जान फर सदा स्नेह बनाये सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिँ प्रेम-बस सासू । हृदय लगाइ कुँअरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥१॥ इन वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया, प्रेम के अधीन हो कर सासूचे बोल नहीं सकती हैं । सव पुत्रियों को हृदय से लगा लिया और पतियों को सौंप कर बहुत विनती की ॥४॥ सासुओं का प्रेम वश हो कर बोल न सकना 'स्वरमग साविक अनुभाव' है। हरिगीतिका-छन्द । करि बिनय सिथ रामहि समरपी, जारि कर पुनि पुनि कहै । बलिजाउँ तात सुजान तुम्ह कहँ, बिदित गति सब की अहै । +