पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४००

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प्रथम सौपान, बालकाण्ड । ३४१ सादर सकल कुँअरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥ बहुरि बहुरि भैहिँ महतारी । कहहिँ बिरच्चि रची कत नारी ॥४॥ आदर के साथ सम्पूर्ण पुत्रियों को समझा कर रानियों ने बार बार हदय से लगाया । माताएँ फिर फिर भेटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्रियों को किस लिए बनाया? (जो सदा पराधीन ही रहती हैं)॥४॥ चिन्ताजल मनोम का होना 'विषाद सञ्चारीभाव है। दो०- तेहि अवसर पाइन्ह सहित, राम-भानु कुल-केतु । चले जनक-मन्दिर मुदित, बिदा करावन हेतु ॥३३४॥ उसी समय भाइयों के सहित सूर्यवंश के पताका रामचन्द्रजी बिदा होने के लिए जनकजी के महल में चले ॥ ३३४॥ चौ०-चारिउ भाइ सुभाय सुहाये । नगर नारि नर देखन धोये ॥ कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥१॥ चारों भाई सहज सुहावने हैं, नगर के स्त्री-पुरुष देखने को दौड़े। कोई कहता है कि आज ये जाना चाहते हैं, विदेह ने विदा की तैयारी की है ॥१॥ पुरजन स्वाभाविक बात कहते हैं, परन्तु 'विदेह' शब्द ले स्वभावतः यह व्यङ्ग निकलता है कि जो अपने शरीर का ज्ञान नहीं रखते उन्हें प्रिय पाहुनों को बिदा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह अविवक्षितवाच्च ध्वनि है। लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप-सुत-चारी ॥ को जानइ केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे विधि आनी ॥२॥ आँख भर छषि देख लो, राजा के चारों पुत्र प्यारे मेहमान हैं। हे सयानी ! कौन जानता है किस पुण्य से ब्रह्मा ने इन्हें लाकर नेत्रों का अतिथि किया है ॥२॥ मरनसील जिमि पाव पियूखा। सुरतरु लहइ जन्म के भूखा ॥ पाव नारकी हरि-पद जैसे। इन्ह कर दरसन हम कह तैसे ॥३॥ मरनेवाला प्राणी जिस तरह अमृत पाजाय और जन्म के भूखे को कल्पवृक्ष मिल जाय; जैसे नरक में बसनेवाला हरिपद (मोक्ष) पावे, हम को इनके दर्शन वैसे ही हैं ॥३॥ निरिख राम सेामा उर धरहू। निज-मन-फनि-मूरति-मनि करहू ॥ एहि बिधि सबहि नयन फल देता। गये कुंअर सब राज-निकेता रामचन्द्रजी की शोभा को निरस्त कर दद्य में बसानो, अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को मणि बनाओ। इस प्रकार सब को नेत्रों का फल देते हुए सब कुँवर,राजमहल में गये ॥४॥