पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ३२७ करि मधुप मुनि मन जोगि-जन जे, सेइ अभिमत गति लहैं। ते पद पखारत भाग्य-भाजन, जनक जय जय सब कह ॥३१॥ जिन चरणों के स्पर्श से मुनि की स्त्री (अहल्या) जो पाप की मूर्ति थी, उसने भी अच्छी गति पाई, जिसका रस शिवजी के सिर पर विराजमान है, जिसको पवित्रता की सीमा देवता लोग वर्णन करते हैं। मुमि और योगिजन अपने मन को भ्रमर धना कर जिस (मकरन्द) का सेवन कर वाञ्छित गति पाते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्यवान जनक धोते हैं, इससे सब उनका जय जयकार करते हैं ॥३२॥ बर-कुँअरि करतल जोरि साखोच्चार दोउ कुल-गुरु करें। भयो पानि-गहन बिलोकि बिधि-सुर-मनुज-मुनि आनँद भएँ । सुख-मूल-दूलह देखि दम्पति, पुलक तनु हुलस्या हियो । करि लोक-बेद-विधान कन्यादान नृप-भूषन किया ॥३२॥ घर-कन्या की हथेलियों को मिला कर दोनों कुलगुरु शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण दुआ देख कर ब्रह्मा आदि देवता, मनुष्य और मुनि आनन्द से भर गये। सुख के मूल दूलह को देख कर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो हृदय में उत्साह उमड़ आया । इस तरह लोक और वेद का विधि कर के राजाओं के भूषण जनकजी ने कन्यादान किया ॥३२॥ हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि, हरिहि श्री सागर दई। तिमि जनक रोमहि लिय समरपी, बिस्व कल कीरति नई ॥ क्यों करइ बिनय बिदेह कियउ बिदेह मूरति साँवरी। करि होम बिधिवत गाँठि जोरो, होन लागी भाँवरी ॥३३॥ जिस प्रकार हिमवान ने शिवजी को उमा और समुद्र ने विष्णु को लक्ष्मी दी थी। उसी तेरह जनक ने रामचन्द्रजी को सीताजी को समर्पण किया, जिनकी सुन्दर नवीन कीति संसार में फैली है। विदेह राजा कैसे विनती करें, उन्हें श्यामली मूत्ति ने बिना सुध बुध की कर दी । विधि-पूर्वक हवन करके गाँठ जोड़ी गई और भाँवर होने लगीं ॥३३॥ दो०-जय-धुनि बन्दी-बेद-धुनि, मङ्गल-गान निसान । सुनि हरषहिँ बरषहिँ बिबुध, सुरतरु-सुमन सुजान ॥३२४॥ जयध्वनि, बन्दीध्वनि, वेदध्वनि, मङ्गल गानध्वनि और नगाड़े की ध्वनि सुन कर चतुर देवता हर्षित होते हैं तथा कल्पवृक्ष के फूल बरसाते हैं। ३२४ ॥ चौ०-कुँअर कुँअरि कल भाँवरि देहीं । नयन लाभ सब सादर लेही । जाइ न बरनि मनोहरि जोरी। जो उपमा कछु कहउँ सो थोरी ॥१॥ कुँवर और कुंवरि सुन्दर भाँवरें देते हैं, सब आदर से नेत्रों का लाभ लेते हैं। मनोहर जोड़ी बखानी नहीं जाती, जो कुछ उपमा कहूँ वह थोड़ी है ॥ १ ॥