पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३८५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । 'महिषी' शब्द अनेकार्थी है, पर राजा जनक के संयोग से अभिषिक्त रानी की अभिधी है, मैंस की नहीं। समउ जानि मुनिघरन्ह बोलाई । सुनत सुआसिनि सादर ल्याई । जनक बाम-दिसि साह सुनयना । हिम-गिरि सङ्ग बनी जनु मयनास अवसर जान कर मुनिवरों ने वुलवाया, सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ आदर से लिवा लाई। जनकजी की वाई श्रोर सुनयनाजी सोहती है, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों हिमा- वल के साथ मैना विराजती हो ॥२॥ कनक-कलस मनि-कोपर सरे। सुचि-सुगन्ध-मङ्गल-जल पूरे ॥ निज कर मुदित राय अरु रानी । धरे राम के आगे आनी ॥३॥ सुवर्ण के कलश और मणि के सुन्दर थाल में जो पवित्र सुगन्धित माङ्गलीक जल से भरे हैं, राजा और रानी ने प्रसन्नता-पूर्वक अपने हाथ से लाकर रामचन्द्रजी के सामने रखा ॥३॥ पढ़हिँ घेद मुनि बङ्गल बानी । गगन सुमन भारि अक्सर जानी। बर बिलोकि दम्पत्ति अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥१॥ मङ्गल वाणी से मुनि लोग वेद-पाठ करते हैं और समय जान कर आकाश से फूलों की झड़ी लगी है। दूलह को देख कर राजा-रानी प्रेम से सराबोर हो पवित्र चरणों को धोने लगे ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । लागे पखारन पाय-पङ्कज, प्रेम तनु पुलकावली । नभ नगर गान-निसान-जय धुनि, उमगि जनु चहुँ दिसिचली। जे पद-सरोज मनोज अरि उर,-सर सदैव बिराजहीं। जे सकृत सुमिरत बिमलता मन, सकल कलिमल भाजहीं ॥३०॥ चरण-कमल धोने लगे, प्रेम से शरीर पुलकित हो गया । श्राकाश और नगर में गाना, नगाड़ा तथा जयजयकार का शब्द हो रहा है, वह ऐसा मालूम होता है मानों चारों दिशाओं में उमड़ चला हो । जो चरण-कमल कामदेव के वैरी शिवजी के हदय रूपी मानसर में सदा विराजते हैं। जिनका एक बार भी स्मरण करने से मेन निर्मल ो जाता है और सम्पूर्ण पाप भाग जाते हैं ॥३०॥ जे परसि मुनि-बनिता लही गति, रही जो पातक-मई। मकरन्द जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता, अवधि सुर बरनई ।