पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३७५

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रामचरित मानस जेहि तुरङ्ग पर राम बिराजे । गति बिलोकि खगनायक लाजे । कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेष जनु काम बनावा ॥४॥ जिस घोड़े पर रामचन्द्रजी विराजमान हैं, उसकी चाल देख कर गरुड़ लजा जाते हैं। वह सब तरह से सुहावना कहा नहीं जाता है, ऐसा मालूम होता है मानों कामदेव ने घोड़े का रूप बनाया हो॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । जनु बाजि-बेष बनाइ मनसिज, राम-हित अति-सोहई। आपने बय-बल-रूप-गुन-गति, सकल भुवन बिमाहई । जगमगत जीन जराव जोति सुभाति मनि मानिक लगे किङ्किनि ललाम लगाम-ललित बिलोकि सुर-नर-मुनि ठगे ॥२१॥ मानों घोड़े का वेश बना कर कामदेव रामचन्द्रजी के हेतु अत्यन्त शोभित हो रहा है। अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त भूमण्डल को मोहित करता है । सुन्दर मोती, मणि और माणिक लगे जड़ाऊदार जीन की ज्योति जगमगा रही है। मनोहर धुंधुक लगी ललित लगाम को देख कर देवता, मनुष्य और मुनि ठगे जाते हैं ॥ २१॥ दो-प्रभु मनसहि लवलीन मन, चलत बाजि छबि पाव । भूषित उड़गन तड़ित धन, जनु बर बरहि नचाव ॥ ३१६ ॥ प्रभु रामचन्द्रजी की इच्छा में मन लवलीन किये चलने में घोड़ा छषि को प्राप्त हो रहा है। ऐसा मालूम होता है मानो तारागण और बिजली से अलंकृत मेघ,मच्छे मुरैले को नचाता हो ॥१६॥ रत्नादि और तारागणु, पीताम्बर और विजली, रामचन्द्रजी के श्याम अह और मेष, घोड़ा और मोर परस्पर उपमेय उपमान हैं। यह उत्प्रेक्षा कवि की कल्पना मात्र है, क्योंकि ऐसा दश्य संसार में होते सुना नहीं जाता कि बादल तारागण-विजली से विभूषित मोर पर सवार हो उसे नचाता हो 'अनुकविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। गुटका में 'चलत चाल छवि पाव' पाठ है। चौ-जेहि बर बाजि राम असवारा । तेहि सारदउ न बरनइ पारा॥ सङ्कर राम-रूप अनुरागे । नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे ॥१॥ जिस उत्तम घोड़े पर रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन कर सरस्वती भी पार नहीं पा सकती। शङ्करजी रामचन्द्रजी के रूप में अनुरक हुए, उन्दै अपने पन्द्रहों नेत्र अत्यन्त प्यारे लगे ॥१॥