पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३५

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(१०) में विघ्न पड़ते देख गोलाँईजी गुफा बनाकर उसमें रहने लंगे, दिन में एक बार बाहर निकल कर सवको दर्शन दे दिया करते थे। कहते हैं तीन वालक प्रति दिन समय पर गोस्वामोजी का दर्शन करने श्राया करते थे। एक दिन समय वीत गया और वे गुफा से वाहर नहीं निकले । लोगों को निराशा उत्पन्न हुई कि श्राज गोसाँईजी गुफा के वाहर न निकलेंगे श्रतएव दर्शन न होगा। सप अपने अपने घर को चलना ही चाहते थे कि इतने में वे तीनों बालक मूर्छित होकर धरतो पर गिर पड़े। उनके मूर्छित होने से बड़ा हल्ला हुश्शा और उसे सुन गोसाँईजी गुफा से बाहर निकल आये। उन बालकों को चरणामृत देकर सचेत किया । सब लोग बालकों के प्रेम की प्रशंसा करते हुए अपने अपने स्थान को लौट गये। बादशाह की कैद। मुर्वा जिलाने की खबर बादशाह जहाँगीर के कान तक पहुँची। उसने गोस्वामीजी को दिल्ली में बुलवा भेजा और कहा कि-सुना जाता है आपने मुर्दे को जिला दिया है। कृपा कर मुझे अपनी कोई करामात दिखाइये । गोसाँईजी ने कहा-ह राम नाप की महिमा है; किन्तु मैं कोई करामात नहीं जानता । इस उत्तर से बादशाह का सन्तोष नहीं हुआ, उसने सोचा कि यह अपने को छिपातो है । अप्रसन्न होकर दिल्लीश्वर ने उन्हें जेलखाने में बन्द करवा दिया। तब गोस्वामीजी ने हनूमानजी की वन्दना प्रारम्भ की और ऐसी करुणा भरी बाणी से निवेदन किया कि हनूमानजी कारागार में प्रकट हो दर्शन दिये। उन्हें रात्रि में धीरज धारण करने का आदेश फिया । लवेरा होते ही सारी दिल्ली में वानरी सेना ले मातङ्क छा गया। शाही महत ले लेकर कंगाल की झोपड़ी पर्यन्त ऐसा कोई भी स्थान नहीं बच रहा कि जहाँ उद्धत वन्दरों का उपद्रव न मच गया हो। कोई बचाव न देख बादशाह घबराया, वह मन में ताड़ गया कि यह उसी फ़कीर की करामात है । स्वयम् जेलखाने . में दौड़ा आया और पाँव पड़कर क्षमा के लिये प्रार्थना की। उसकी विनती से प्रसन्न हो गोसाँईजी ने दो पद्य निर्माण कर पवनकुमार से क्षमा करने के लिये बिनय किया । गोस्वामीजी ने बादशाह को दूसरी दिल्ली बसाकर वहाँ राजधानी बनाने का प्रादेश दिया। बादशाह ने वैसाही किया, फिर तो वह गोस्वामीजी पर बड़ा स्नेह रखता और अत्यन्त पूज्यष्टि से उन्हें देखने लगा। एक बार गोसाई. जी को रोगग्रस्त होना सुनकर वह उनसे मिलने काशोजी श्राया था। हमारी अनुवादित विनय. पत्रिका जो इसी प्रेस में छपी है, उसमें ३२ से.३५वे पंद्य पर्यन्त पढ़ जाइये । वहाँ इसका विस्तृत धम्न है। वृन्दावन की यात्रा। एक बार तीर्थाटन के निमित प्रस्थान कर गोसाई जी अयोध्या से वराहक्षेत्र होते हुए नैमिषारण्य में आये। वहाँ से चल कर कुछ दिन पसका और सिवार गाँव में निवास किया। फिर लखनऊ आये और एक निरक्षर जाट पर प्रसन्न हो उसे श्राशोद देकर श्रेष्ठ कवि बना दिया । मड़िनाउँ ग्राम में भी नामक एक भक्त रहते थे, उनके बनाये तखशिख को सुन कर बहुत प्रसन्न हुए । चनहट गाँव से होते हुए मार्ग में एक कुएं का जल पान किया और उसके गुणों की प्रशंसा की। मलिहाबाद में आकर उरगये, यहाँ एक भार बड़े हरिभक और रामयश के प्रेमी रहते थे। कहते हैं. गोस्वामीजी ने अपने हाथ की लिखी रामायण उन्हें दो जो अबतक विद्यमान है। इस पुस्तक के विषय में मिश्रबन्धुओं ने हिन्दी-नवान में लिखा है कि-"यह रामायण वहाँ के महन्त जनार्दन दासजी के पास अद्यावधि वर्तमान है । इस पुस्तक को एक बार लगभग आध घंटे तक हमने भी देखा; परन्तु हमको इसके गोस्वामाजी के लखित होने में सन्देह है। इनकी लिखी दुई अयोध्याकाण्ड