पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३४४

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२५ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । छल तजि करहि समर सिव-द्रोही । बन्धु सहित न त मारउँ ताही । भृगुपति बकहिँ कुठार उठाये । मन मुसुकाहिँ राम सिर नाये ॥२॥ अरे शिवद्रोही ! छल छोड़ कर संग्राम कर, नहीं तो भाई के सहित तुझे माऊँगा। परशु. रामजी कुल्हाड़ा उठाये वकते हैं और रामचन्द्रजी सिर नीचे किये मन में मुस्कुराते हैं ॥२॥ परशुरामजी के इस अनुचित क्रोध पर रोमचन्द्रजी का अनुसन्धान करके मुस्कुराते हुए मन में विचार करना 'मति सवारीभाव' है। गुनहु लखन कर हम पर रोषू । कतहुँ सुधाइहु तँ बड़ दोषू । टेढ़ जानि सङ्का सब काहू । बक्र चन्द्रमहिँ ग्रसइ न राहू ॥३॥ गुनाह लक्ष्मण का और क्रोध हम पर करते हैं। कहीं सीधेपन से भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जान कर सब को डर होता है, टेढ़े चन्द्रमा को राहु नहीं पकड़ता ॥३॥ यह रामचन्द्रजी मन में विचारते हैं कि उत्तर देने का अपराध लक्ष्मण करते हैं, परन्तु परशुरामजी मुझ पर क्रोधित हो रहे हैं। कहीं लिधाई से बड़ा दोष होता है । सीधापन उत्तम गुण है, उसको बड़ा दोष कहना 'लेश अलंकार' है । टेढ़ा समझ कर सब उससे डरते हैं, यह उपमेय वाक्य है और टेढ़े चन्द्रमा को राहु नहीं असता, यह उपमान पाक्य है। बिना वाचक पद के दोनों चाश्यों में पिम्प प्रतिविम्ब भाव झलकना 'दष्टान्त अलंकार है। कहीं सुधाई से बड़ा दोष होता है, इस साधारण वात का समर्थन विशेष सिद्धान्त से करना कि टेढ़ा जान कर सब भय खाते हैं । रेदे चन्द्रमा का मास राहु नहीं करता 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। इस प्रकार यहाँ अलंकारों का सन्देहसकर है । शङ्को-रामचन्द्रजी कह आये हैं कि लक्ष्मण बालक, सीधे, दूध मुखवाले अबोध हैं, वे अपराधी नही हैं। फिर उन्हें गुनाहगार कैसे कहते है ? उत्तर-प्रथम तो यह प्रत्यक्ष कथन नहीं, मन मेंतर्क करते हैं इससे शङ्का की बात ही नहीं है। दूसरे अर्थ में श्लेष है कि गुनाह लखते नहीं हैं, हम पर नाहक क्रोध करते हैं। वास्तव में सीता धनुष को न उठाती तो काहे को जनक प्रण करते,और किस लिए मैं धनुष तोड़ता? यह व्यसनामूलक गूढ़ व्यङ्ग है। राम कहेउ रिस तजिय मुनीसा । कर कुठार आगे यह सीसा ॥ जेहि रिस जोइ करिय साइ स्वामी । माहि जानिय आपन अनुगामी ॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे मुनीश्वर क्रोध त्याग दीजिए, आप के हाथ भलुहा और यह मेरा सिर सामने है। जिस तरह क्रोध जाय मुझे अपना सेवक समझ कर वही कीजिए॥४॥ सिर कटवाने को उधत होकर कल्याण चाहना विचित्र अलंकार है। दो-प्रभुहि सेवकहि समर कस, तजहु विप्र-बर रोस । बेष बिलोकि कहेसि कछु, बालकहू नहिँ दोस ॥ २८१ ॥ स्वामी से सेवक का युद्ध कैसा ? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण ! क्रोध त्याग दीजिए । वेश देख कर उसने कुछ कहा, इसमें बालक का भी दोष नहीं है॥२१॥