पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३७

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व्यक रामचरित-मानस । २७८ काल-कवलु होइहि छन माहीं । कहउँ पुकारि खोरि माहि नाही जी चहहु उबारा । कहि प्रताप बल रोष हमारा ॥२॥ क्षण भर में काल का कौर होगा, मैं पुकार कर कहता हूँ मुझे दोप नहीं । आप यदि इसे उबारना चाहते हैं तो मेरा प्रताप, बल और क्रोध कह कर मना कीजिए ॥२॥ कौशिक को निहोरा देने में लक्षणामूलक गुणीभूत व्यह है कि इसके पिता से आप माँग कर लिया लाये हैं। यदि यह मार डाला जायगा तो आप की प्रतिष्ठा में धब्बा लगेगा, इसलिए इसको मना कर दीजिए। लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा । तुम्हहिँ अछत्त को बरनइ पारा ॥ अपने मुंह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु थरनी ॥३॥ लक्ष्मणजी ने कहा-हे मुनि ! आप का सुयश आप की उपस्थिति में दूसरा कौन कह कर पार पा सकता है? अपने मुँह से अपनी करनी का आपने असंख्यों बार बहुत तरह से वर्णन किया ॥३॥ शब्दार्थ और मावार्थ में भिन्नता है। तुम्हहिं अकृत-पद से अन्य वक्ताओं का बोध हो कर डींग हाँकने की शक्ति परशुराम ही में लक्षित हो रही है। यह लक्षणामूलक गुणीभूत है। नहि सन्तोष तो पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥ बीरबती तुम्ह धीर अछामा । गारी देत' न पावहु सोभा ॥a इतने पर भी सन्तोप नहीं है तो फिर कुछ कहिए, क्रोध रोक कर असहनीय दुःम मत सहिए। आप धीरवतो, साहली और निर्भीक भट हैं, गाली देते शोभा नहीं पाते हो अर्थात् गाली वकना शूरवीर का काम नहीं है ॥ ४॥ दो--सूर समर करनी करहि, कहि न जनावहि आप । बिदामान रन पाइ रिपु, कायर करहिं प्रलाप ॥२७॥ शूरवीर संग्राम में करनी करते हैं, पर वे अपने मुँह से कह कर जनाते नहीं । शत्रु को रण में उपस्थित पा कर कादर ही प्रलाप करते हैं ॥ २७४ ॥ पहले यह कहना कि शूर समर में करनी कर के खुद नहीं कहते, फिर उपमान वाक्य की भौति लोकोक्ति कथन कि शत्रु को सामने पाकर डरपोक डींग हाँकते हैं 'छेकोक्ति अलंकार' है। इससे परशुराम की कायरता व्यजित करना तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है कि पुरुषार्थ कर के दिखलाश्री, उसे वाकी न रख छोड़ो। गाली धक कर अपने वीरव में दारा न लगाओ। चौ०- -तुम्ह तौ काल हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि घुलावा॥ सुनत लखन के वचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥१॥ आप ने तो काल को मानों हाँक लगा कर घार वार हमारे लिए बुलाया (पर वह प्राता नहीं ) है । लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही भीषण भल्हे को सीधा कर के हाथ में लिया और बोले-॥१॥ .