पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३३३

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२७४ रामचरित मानस मन पछिताति सीय-महँतारी। बिधि अब सबरी बात बिगारी॥ भूगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध-निमेष कलप सम.बीता ugu सीताजी को माता मन में पछताती हैं कि अब विधाता ने सारी बातें विगाड़ दी। परशु- रामजी का स्वभाव सुन कर सीताजी को आधे पल का समय कल्प के समान बीता।॥४॥ दो०-समय बिलोके लोग सब, जानि जानकी भीर। हृदय न हरष बिषाद कछु, बोले श्रीरघुबीर ॥ २० ॥ सब लोगों को भयमीत देखा और जानकीजी को डरी हुई जान कर हदय में हर्ष विपाद कुछ नहीं, स्वभावतः श्रीरघुनाथजी बोले ॥ २७० ॥ चौ० नाथ सम्भु-धनु भञ्जनिहारा । होइहि कोउ एक दास तुम्हारा ॥ आयसु काह कहिय किन माही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥१॥ हे नाथ ! शिवजी के धनुष का तोड़नेवाला श्राप का कोई प्रधान दास होगा। क्या प्राथा है, मुझे क्यों नहीं कहते ? यह सुन कर क्रोधी मुनि रिसिया के बोले ॥ १ ॥ वाच्यार्थ के बराबर व्यहार्थ है कि मैं ही आपका दास धनुष तोड़ने वाला हूँ, मेरे लिए क्या श्राक्षा है। इतना स्पष्ट कहने पर भी क्रोध के आधीन होने से परशुरामजी नहीं समझ सके। सेवक सो जो करई सेवकाई । अरि करनी करि करिय लराई । हु हु राम जेहि सिव-धनु तोरा । सहसबाहु सम से रिपु मारा ॥२॥ सेवक वह है जो सेवकाई करे, शत्र का काम कर के लड़ाई करना चाहिए । हे राम ! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, यह सहस्रार्जुन के समान मेरा वैरी है ॥२॥ 'सेवक' शब्द सेवकाई के लिये स्वयंसिद्ध है पुनः उसका विधान करना 'विधिअलंकार' है। प्रश्न--सहावाहु परशुरामजी का शत्रु कैसे हुआ ? उत्तर-सहस्रार्जुन माहिमती का राजा था, बड़ा बली योद्धा और उस के हजार भुजाएँ थीं। एक बार वह अपनी अनन्त सेना के सहित पशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में आया । मुनि ने ससैन्य उसका अतिथि- सत्कार किया। राजा को आश्चर्य हुआ कि बनधासी तपस्वी के पास इतना ऐश्वर्य कहाँ से आया। पता लगाने पर मालूम हुआ कि मुनि के पास एक कामधेनु है, यह उसी की करा- भात है। राजा ने मुनि को बहुत सा प्रलोभन दे कर गैी को लेना चाहा। बिरानी थाती समझ कर मुनि ने देना स्वीकार नहीं किया। अन्त में उसने जमदग्नि की हत्या कर के गऊ ले ली। उस समय परशुरामजी आश्रम में नहीं थे। कामधेनु तो जोरावरी से रक्षकों का संहार कर स्वर्ग को चली गई, राजाखाली हाथ माहेश्वरीपुरी में गया। परशुरामजी आये तो माता को बिलाप करते देखा, पिता की मृत्यु का कारण सुन कर अत्यन्त क्रोधित हुए । तुरन्त सहना- ज्जुन के पास पहुँच कर समर में उस की भुजाएँ छिन्न मिन कर सिर काट लिया और प्रतिक्षा कर के इक्कीस बार घूम घूम कर क्षत्रियवंश का निपात किया। .