पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३२५

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२२८ रामचरित मानस । सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥ गावहि छवि अवलोकि सहेली। सिय जयमाल राम उर मेली ॥४॥ ऐसा मालूम होता है मानो इण्डियों के सहित दो कमल डरते हुए चन्द्रमा को जयमाल प्रदान करते हो। इस छवि को देख कर सखियाँ मन्नत गाती है, सीताजी ने रामचन्द्रजी के । गले में जयमाला डाल दी॥४॥ सीताजी के दोनों हाथ और कमल-पुष्प, बाटुएँ और कमलनाल, रामचन्द्रजी का मुख-मण्डल और चन्द्रमा परस्पर उपमेय उपमान हैं । कमल चन्द्रमा को देख कर सकुचित होता है, जनकनन्दिनी के कर-कमल जयमाल को थाम्हने से सिकुड़े है और लज्जा से शीघ्र गले में डालती नहीं है ।यह कवि की कल्पना मात्र है, जगत् में ऐसा दृश्य दिखाई नहीं देता। कमल का डरना प्रसिद्ध आधार है, क्योंकि वह जड़ है । इस हेतु को हेतु उहराना 'प्रसिद्ध विषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है। से०-रघुबर उर जयमाल, देखि देव बरहिँ सुमन । सकुचे सकल भुआल, जनु बिलोकि रवि कुमुद-गन ॥२६॥ रघुनाथजी के हृदय में जयमालो देख कर देवता फूल बरसाते हैं । सम्पूर्ण राजा सकुचा गये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो कुमुद् का समूह सूर्य को देख कर सिकुड़ गया हो ॥ २६४ ॥ चौ०-पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भये मलिन साधु सब राजे । सुर किन्नर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहि असीसा ॥१॥ नगर पार आकाश में बाजे बनते हैं, दुष्ट उदास हुए; सब सज्जन प्रसन्न हुए। देवता किन्नर, मनुष्य और मुनीश्वर जय हो, जय हो, जय हो, कह कर आशीर्वाद देते हैं ॥ ३॥ नाहिँ गावहिँ बिवुध-बधूटी। बार बार कुसुमाजुलि छूटी। जहँ तहँ बिन बेद धुनि करही। धन्दी बिरदावलि उच्चरही ॥२॥ देवानाएँ नाचती गाती हैं और चार वार अली भर भर फूल छोड़ती हैं। जहाँ वहाँ ब्राह्मण घेद-ध्यमि करते हैं, बन्दीजन नामवरी घखानते हैं ॥२॥ महि पाताल व्याल जस व्यापा । राम बरी सिय भजेउ चापा ॥ करहिँ आरती पुर-नर-नारी । देहिँ निछावरि वित्त बिसारी ॥३॥ पृथ्ती, पाताल और आकाश में यह यश फैल गया कि रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष को तोड़ कर सीताजी के विवाह लिया। नगर के स्त्री-पुरुष भारती करते हैं और पित्त (अपनी हैसियत ) को भूल कर न्योछावर देते हैं ॥३॥ धनुष टूटते देरी नहीं कि यह यश तीनों लोका में घाद की बात मैं फैल गया, कारण कार्य का एक साथ होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है।