पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१६

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. प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २५ रावन बान छुआं नहिँ चापा। हारे सकल भूप करि दापा ॥ सा धनु राजकुअर कर देही । बाल मराल कि मन्दर लेही ॥२॥ जिसको रावण और वाणासुर ने नहीं छुआ, सब राजा घमण्ड कर के हार गये। वह धनुष राजकुमार के हाथ में देते हैं, क्या हंस का बच्चा मन्दराचल उठा सकता है ? (कदापि नहीं ॥२॥ यहाँ कहना तो यह है कि राजकुमार धनुष नहीं तोड़ सकते । इस प्रस्तुत वृत्तान्त कोन कह कर केवल उसका प्रतिबिम्ब मान कथन 'ललित अलंकार' है। भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधिगति कछु जाति न जानी॥ बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लधु गनिय न रानी ॥३॥ राजा की सारी चतुराई समाप्त हो गई। हे सखी ! विधाता की गति जानी नहीं जाती। यह सुनकर चतुर सखी कोमल वाणी से बोली-हे रानी! तेजस्वियों को छोटा न समझना चाहिए ॥३॥ रामचन्द्रजी के कोमल शरीर को देख कर सुनयना के मन में धनुष न टूटने की शङ्का का भ्रम हुआ, उसको सच्चे उदाहरणों द्वारा सस्त्री का दूर करना 'भ्रान्त्यापह ति अलंकार' है। कहँ कुम्भज कहूँ सिन्धु'अपारा । सोखेउ सुजस सकल संसारा। रबिमंडल देखत लघु लागा। उदय तासु त्रिभुवन तम भागा ॥४॥ कहाँ घड़ा से उत्पन्न अगस्त्य मुनि और कहाँ अपार समुद्र! उन्हों ने सोख लिया उनका सुयश सारा संसार जानता है। सूर्य-मंडल देखने में छोटा लगता है, उनके उदय से तीनों लोकों का अन्धकार भाग जाता है ॥४॥ यह व्यजित होना कि रामचन्द्रजी धनुष तोड़ेंगे लक्षणामूलक अगूढ़ व्यङ्ग है । अगस्त्यमुनि एक बार समुद्र में स्नान कर किनारे पर पूजा करने बैठे। इतने में लहर आई और पूजन सामग्री को बहा ले गई । मुनि ने क्रोध कर तीन ही आचमन में समुद्र का जल सोख लिया, फिर देवताओं की प्रार्थना पर पेशाव कर के भर दिया। इसी से समुद्र का जल स्वारा हो गया । अगस्त्य मुनि के उत्पत्ति का वृत्तान्त इसी कांड के दूसरे दोहे के भागे दूसरी चौपाई. के नीचे की टिप्पणी देखो। दो०-मन्त्र परम-लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्ब । महा मत्त गजराज कह, बस कर अङ्कुस खर्च ॥२६॥ मन्त्र बहुत ही छोटे होते हैं, जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और सभी देवता हैं। महा मतवाले गजेन्द्र को छोटा सा अङ्कुश वश में कर लेता है ॥२५६॥ लघु मन्त्र और अकुश अपूर्ण कारण हैं, उनसे देवता और मस्त हाथी को वश में होना अर्थात् अपूर्ण कारण से कार्य का पूर्ण होमा द्वितीय विभावना अलंकार' है। !