पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३१२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २५५ दा-कुंअरि मनोहर बिजय बड़ि, कीरति अति-कमनीय । पावनिहार बिरच्चि जनु, रचेउ न धनु-दमनीय ॥२५१॥ सुन्दर कुँवरि, बड़ी विजय और अतिशय रमणीय कीर्ति का पानेवाला वही होगा जो धनुष को तोड़ेगा ! पर मुझे ऐसा मालूम होता है कि विधाता ने धनुष को काबू में करने बाला किसी को बनाया ही न हो ॥२५॥ राजा कुवरि को मनोहर कहने में कन्या का मार वर्णन कह कर कुछ लोग आक्षेप करते हैं । राजा ने शृङ्गार तो वर्णन नहीं किया 'सुन्दर कन्या' कहना शृङ्गार कथन कैसे कहा जायगा ? यह साधारण बोलवाल की भाषा है। चौ०-कहहु काहि यह लाभ न भावा । काहुन सङ्का-चाप चढ़ावा । रहउ चढ़ोउय तारन भाई । तिल भर भूमि न सकेउ छुड़ाई ॥१॥ कहिए तो, यह लाभ किस को अच्छा नहीं लगा जो किसी ने शङ्कर-चाप को नहीं चढ़ाया ? भाइयो ! चढ़ाना और तोड़ना दूर रहे, श्राप लोग तिल भर धरती नहीं छुड़ा सके ॥१॥ शिव-धनु को उठाने और तोड़ने की सरगनाओं को प्रयल उत्कण्ठा थी, इस सही वात को राजा का नहीं कर जाना 'काकुक्षिप्त गुणीभूत व्या' है। अब जनि कोउ माखइ भट मानी । बीर-बिहीन मही मैं जानी। तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखो न बिधि वैदेहि विघाहू ॥२॥ 'अब कोई सम्मान चाहनेवाला योद्धा नाराज़ न हो, मैंने धरती पिना और की समझ ली। आप लोग आसरा छोड़ कर अपने अपने घर जाइए, विधाता ने वैदेही का विवाह नहीं लिखा ( दैवयोग परवश नहीं) ॥२॥ सुकृत जाइ जौँ पन परिहरऊँ । कुँअरि कुँआरि रहउ का करऊँ । जौं जनतेॐ बिनु भट भुंइ भाई । तौ पन करि होतेउँ न हँसाई ॥३॥ यदि प्रतिज्ञा को छोड़ता है तो सुकत चला जाता है, कुमारी कुमारी रह जाय तो मैं क्या कर सकता हूँ? जो जानता कि हे भई ! पृथ्वी बिना वीर की हुई है वो हँसने योग्य प्रण कर के दिल्लगी के योग्य न बनता ॥ ३ ॥ जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भये दुखारी । माखे लखन कुटिल भइ भौं हैं । रद-पट फरकत नयन रिसौहैं ॥४॥ जनकजी के वचन सुन कर और जानकीजी को देख कर सब स्त्री-पुरुष दुखो हुए। लदपण जी कोधित हो गये, भौई देदो हो गई, ओइ फड़कने लगे और आँख गुस्से से लाल हो गई ॥४॥