पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०७

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२५० . रामचरित-मानस । सीताजी की छवि वखानी नहीं जा सकती, इस बात का युक्ति के समर्थन करना कि वे जगन्माता, रूप और गुणों को खान हैं 'काव्यलिश अलंकार है। सीय बरनि तेहि उपमा देई । कुकमि कहाइ अजस को लेई । जौँ पटतरिय तीय महँ सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥२॥ सीताजी के वर्णन में उन उपमाओं को दे फर कुकवि कहा कर कौन अयश लेवे ? यदि लियों में सीताजी का पटतर दें, तो जगत् में ऐसी सुन्दर स्त्री कहाँ है ? ॥२॥ गुटका में 'जौं पटतरिय तीय सम सीया' पाठ है। गिरा-मुखर तनु-अरध-भवानी। रति अति दुखित अननु पति जानी। विष-बारुनी-बन्धु प्रिय हो । कहिय रमा सम किमि वैदेहो ॥३॥ सरस्वती बहुत बोलने वाली, पार्वती श्रीहिनी हैं और रायना शरीर का पति जान कर , रति वहुन दुखित रहती है। जिसका प्यारा भाई विप और मय है, फिर लघमी के समान विदेह-नन्दिनो को कैसे कहा जाय ? ॥३॥ जाँ छवि-सुधा-पयोनिधि होई। परम-रूप-मय कच्छप साई ॥ सेोभा-रजु मन्दर-सिङ्गारू । मथइ पानि पङ्कज निज मारू ॥१॥ यदि छवि कपी अमृत का समुद्र हो और प्रत्युत्तम साकार रूप वही क्छुपा हो। शोमा रस्सी हो और भंगार मन्दर पर्वत हो, अपने कर-कमलों से कामदेव मथे ॥४॥ छवि, परम-रूप शोमा और हार ये चारों छवि ही के कगन्तर पर्यायी शब्द है। एक ही वस्तु को समुद्र, कच्छप, रस्सी और मथानी वर्णन करना 'द्वितीय उल्लेख अलंकार' है। यह उरलेन सम्मावना का अशी है। दो-एहि बिधि उपजइ लच्छि जब, सुन्दरता सुख-मूल । तदपि सकोच समेत कधि, कहहिं सीय समतूल ॥२४७॥ जब इस तरह सुन्दरता और सुख को भून लक्ष्मी उत्पन्न हो, तब भी संकोच से सीताजी की बराबरी में कवि लोग कहते हैं ॥२४७॥ यदि ऐसी लक्ष्मी उत्पन्न हो तो भी लजाते दुर सीताजी की समानता में कवि का सकेंगे 'सम्मावना अलंकार' है। सरस्वती, पार्वती, रति की अपेक्षा सीताजी को शोभा बहुत बढ़ कर कही गई । व्यहार्थ द्वारा व्यतिरेक अलंकार की विवक्षितवाच्य ध्वनि है। चौ०-चली सङ्गलइ सखो सयानो। गावत गीत मनोहर बानी। साह नवल-तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छवि भारी॥१॥ चतुर सस्त्रियाँ मनोहर वाणी से गीत गाती हुई (सीताजी को) साथ में ले कर चली । उनके नबीन (युवा) शीर पर सुन्दर साड़ो शे.मित है और जगत् की माता जानकीसी की अपार कृषि है.(उसका वर्णन नहीं हो सकता), ॥१॥