पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/३०६

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. प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ची०-वृथा मरहु जनि गाल बजाई । मन-मोदकन्हि कि भूख बताई। सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदम्बा जानहु जिय सीता ॥१॥ निरर्थक गाल बजा कर मत मरो, क्या मन के लड्डुओं से भूख बुझेगी ? (कभी नहीं)। हमारी परमपवित्र शिक्षा सुन कर सीताजी को हृदय में जगन्माता जानों ॥१॥ जगतपिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी। सुन्दर सुखद सकल-गुन-रासो। ये दोउ बन्धु सम्भु-उर-बासी ॥२॥ रघुनाथजी को जगत्पिता समझ कर आँख भर उनकी छवि देख लो। ये दोनों भाई सुन्दर, सुख देनेवाले सम्पूर्ण गुणे की राशि और शिवजी के मानस में निवास करनेवाले हैं ॥२॥ सुधा . समुद्र समीप बिहाई । मृग-जल निरखि मरहु कत धाई ॥ करहु जाइ जा कहँ जोइ भावा । हम तो आजु जनम-फल पावा ॥३॥ अमृत के समुद्र का पास छोड़ कर मृगजल (झूठे पानी ) को देख दौड़ कर काहे को मरते हो? (जब सिखाने से गर्वी राजानी ने अपनी अकड़ नहीं छोड़ी, तब साधुराजा बोले कि ) जिसको जो अच्छा लगे वह जा कर वही करे, पर हमने तो आज जन्म का फल पा लिया ॥३॥ रामचन्द्र की छवि देखो सीता के पाने की व्यर्थ प्रयास मत करो, यह राजाओं के कहने का प्रस्तुत वृत्तान्त है इसे न कह कर केवल उसका प्रतिबिम्ब मात्र कहना कि पास में अमृत-सागर छोड़ कर मृगजल के लिए दौड़ कर क्यों मरते हो ललित अलंकार' है। अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे । देखहिँ सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिँ सुमन करहिं कल गाना ॥४॥ ऐसा कह कर अच्छे राजा प्रेम से अनुपम रूप निहारने लगे। देवता विमानों में चढ़े आकाश से कुतूहल देख रहे हैं, वे फूल बरसाते और सुन्दर गान करते हैं ॥४॥ दो०-जानि सुअवसर सीय तब, पठई जनक बोलाइ । सखी सुन्दर सफल, सादर चली लेवाइ ॥२४॥ तब अच्छा समय समझ कर जनकनी ने सीताजी को बुलवा भेजा। सब सुन्दर चतुर सखियाँ आदर से लिवा कर चलीं ॥२४॥ चौ०-सिय साभा नहिँ जाइ बखानी । जगदम्बिका रूप-गुन-खानी ॥ उपमा' सकल मोहि लघु लागी। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागी ॥१॥ सीताजी की शोभा बसानी नहीं जा सकती. वे जगत् की माता, रूप और गुणों की नानि हैं। मुझे सारी उपमाएं छोटी लगती हैं, क्योंकि वे मामूली लिटयों के अंगों को प्रेमिनी है मर्थात् कवियों ने उन्हें जूठी कर सकी है ॥१॥ ,