पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२९३

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रामनरित-मानस । जी की ओर क्रिया व्यक्षित होना व्यङ्ग है। सखी को सयानी कहने में प्रवन्धवनि है कि जहाँ सब सखियाँ अपना पराया भूल गई, वहाँ उसने धीरज के साथ सोच कर कि सामने राज. कुमार खड़े हैं और राजकुमारी आँख मूंदे खड़ी है ! यदि प्रकट कुछ चेष्टा करती हूँ तो वे जान जायगे और जानकीजी सङ्कत देख न सकेंगी इसलिए धीरे से हाथ पकड़ कर ऐसी दुरजी वाणी बोली कि उन्होंने तुरन्त आँखे खोल दी। सकुचि सीय तब नयन उधारे । सनमुख दोउ रघु सिंह निहारे । नख-सिख देखि राम कै सामा। सुमिरि पिता पन मन अति छात्रा ॥२॥ तव सीताजी ने लजा कर नेत्र खोल दिया और सामने दोनों रघुवंशी सिंहा को देखा। मख से चोटी पर्यन्त रामचन्द्रजी के शोभा को देख कर और पिता की प्रतिमा का स्मरण कर के उनका मन बहुत ही दुखी हुश्री ॥२॥ सीताजी के मन को एक ओर रामचन्द्रजी की शोभा से उत्पन्न हर्ष सबारी और दूसरी ओर पिता की भीषण प्रतिज्ञा की स्मृति सञ्चारी दोनों भाव परस्पर अपनी अपनी ओर खींच रहे हैं । यहाँ दोनों भावों की सन्धि है। परबस सखिन्ह लखी जब सीता । मयड गहरु सब कहहिँ सभीता ॥ पुनि आउब एहि बिरियाँ काली । अस कहि मन बिहँसी एक आली॥३॥ जब सखियों ने सीताजी को पराधीन देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगी कि विलम्ब हुश्रा अव धर चलना चाहिए । एक सखी ने कहा-इसी समय कल्ह फिर भी, आऊँगी, ऐसा कह कर वह मन में मुस्कुराई ॥३॥ उद्देश्य तो रामचन्द्रजी के प्रति है और कहती है सखी से 'व्याजोकि अलंकार' है। अपने लिये कल फिर पाने की बात कहना बोधव्य है, उसकी क्रिया सीताजी और रामचन्द्रजी की ओर व्यजित होना व्यङ्ग है। इधर जानकीजी को शान्त्वना देती है कि कल फिर पाऊँगी तब इनके दर्शन होंगे, साथ ही भय दिखाती है कि यदि आज देरी होगी तो कल माताजी यहाँ न आने देगी। उधर रामचन्द्रजी को इशारे से सम्बोधित करती है कि राजकन्या समेत इसी समय हम सब यहाँ कल श्रावेगी, आप भी अवश्य पधारिएगा। गूढ़गिरा सुनि सिय सकुचानी। मयउ बिलम्ब मातु भय मानी ॥ धरि बड़ धीर राम उर आनी । फिरी अपनपी पितु बस जानी ॥४॥ गूढ़ वाणी सुन कर सीताजी सकुचा गई, देरी हुई जान माता का डर मान कर सशङ्क हुई। बड़ा धीर धर कर रामचन्द्रजी को हदय में ले आई और अपने को पिता के अधीन समझ कर फिरीं ॥४॥ सखी की गूढ़ बात सुन कर संकोच उत्पन्न होना बीड़ा सञ्चारी भाव है। देरी होने से माता का डर होना शङ्का सञ्चारी भाव है। धीरज धर कर राम-रूप हृदय में ले आना धृति सञ्चारी भाव है । अपने को पिता के वश जान कर लौटना विषाद और चिन्ता सञ्चारी भाव है। इस तरह साथ ही सीताजी के मन में कई एक भावों का उदय होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है।