पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२८८

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प्रथम सोपान,बोलकाण्ड । २३१ कामदेव का नगाड़ा बजाना श्रसिद्ध आधार है। क्योंकि वह बिना दुन्दुभी दिये यही त्रिलोक विजयी है। इस हेतु को हेतु ठहराना 'असिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा । सिय मुख ससि भये नयन चकोरा। भये बिलोचन चारु अचञ्चल । मनहुँ सकुचि निमितजे दुगञ्चल ॥२॥ ऐसा कह कर फिर उस ओर देखो, सीताजी के चन्द्रमुख में रामचन्द्रजी के नेत्र चकोर हो कर लग गये। सुन्दर आँखें एफटक हो गई, ऐसा मालूम होता है मानो निमि ने लजाकर पलकों का निवास ही त्याग दिया हो ॥२॥ नेत्रों का सुन्दर सुहावना रूप देख कर अचञ्चल होना सिद्ध आधार है, परन्तु निमि का पलक त्यागना कल्पना मात्र है, इस अहेतु को हेतु ठहराना 'सिद्धविषया हेतूत्मेक्षा अलंकार' है । निमि राजा जनक के पूर्वजों में हैं। एक बार उन्होंने. यच करने की इच्छा से वशिष्ठजी को बुलवाया । गुरुजी इन्द्र का निमन्त्रण पा चुके थे, कहा कि लौट कर तुम्हारा यज्ञ करावेगे, यह कह कर वे इन्द्रलोक को चले गये। राजा ने अनित्य शरीर समझकर. अन्य पुरोहित द्वारा यज्ञारम्भ किया। जब वशिष्ठजी आये तो शिष्य के अपमान से चिढ़ कर शरीर नष्ट होने का शाप दिया। निमि के पुत्रों के उद्योग से वे पुनः सशरीर हुए और यह वर मांगा कि मैं बिना शरीर सब की पलकों पर निवास करूँ, क्योंकि शरीर से बन्धन का भय बना रहेगा। तब से निमि पलकों में रहते हैं, इसी से वह निमेष कहलाती है। इस उत्प्रेक्षा का भाव यह है कि अपने कुल की कन्या जान लजा कर वे पलकों पर ले माने हट गये। देखि सीय सीमा सुख पावा । हृदय सराहत बचन न आवा ॥ जनु बिरच्चि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कह प्रगटि देखाई ॥३॥ सीताजी की शोभा को देख कर सुखी हुए, हदय में सराहते हैं , किन्तु मुख से वचन नहीं निकलता है। ऐसी विलक्षण छवि मालूम होती है मानों विधाता ने अपनी सारी कारीगरी रच कर संसार को प्रत्यक्ष दिखाई हो ॥३॥ ब्रह्मा की रचना-कुशलता सिद्ध आधार है, क्योंकि वे सृष्टि की रचना करते हैं। पर सीताजी को विधि ने नहीं बनाया, वे आदिशक्ति स्वेच्छा से प्रगट नहीं हुई हैं। इस अहेतु को हेतु टहरामा 'सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। सुन्दरतो · कहँ सुन्दर करई । छबि-गृह दीप-सिखा जनु बरई ॥ सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहि पटुतरउँ विदेह-कुमारी ॥१॥ जो (सीताजी ) सुन्दरता को भी सुन्दर करती हैं, उनकी शोभा ऐसी मालूम होती है मानों षि के मन्दिर में दीपक की लौ जल रही हो। सभी उएमाओं को कवियों ने जूठी कर' रक्खी है, इससे जनकनन्दिनी का पटतर मैं किससे देॐ ॥ सुन्दरता को भी सुन्दर करती हैं इस वाक्य में 'अत्युक्ति अलंकार है । कैसा ही सजा सजाया मकान क्यों न हो, पर अँधेरे में उसकी शोभा नहीं, दीपक जलने से वह,जगमगाने लगता है। उसी तरह जानकीजी की 'सुन्दरता, शोभामात्र को छविधान बनाती थे। यह