पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२७३

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रामचरित मानस। देखि अनूप एक अंबराई । सव सुपास सब भाँति सुहाई ॥ कोसिक कहेउ मार मन माना। इहाँ रहिय रघुबीर सुजाना ॥३॥ एक आम का अनुपम वीचा देख कर जो सब तरह से सुहावना है और जहाँ सब सुविधा है, विश्वामित्रजी ने कहा हे सुजान रघुवीर ! मेरा मन चाहता है कि यहाँ ठहरिये ॥३॥ भलेहि नाथ कहि कृपा निकेता । उत्तरे तहँ मुनि-वृन्द समेता ॥ बिस्वामित्र महामुनि आये । समाचार मिथिलापति पाये Nen कृपा के स्थान (रामचन्द्रजी) ने बहुत अच्छा स्वामिन् कह कर मुनि-मण्डली के सहित वहाँ उतरे। महामुनि विश्वामित्रजी आये, वह समाचार मिथिलेश्वर ने पाया ॥३॥ दो-सङ्ग सचिव सुचि भूरि भट, भूसुर बर गुरु ज्ञाति । चले मिलन सुनिनायकहि, मुदित राउ एहि भाँति ॥२१४॥ साधु, मन्त्री, बहुत से योद्धा, अच्छे ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बीजनों को साथ में लेकर इस तरह मुनिराज (विश्वामित्रजा) से मिलने के लिए राजा प्रसन्नता-पूर्वक चले ॥२१॥ चौ०-कीन्ह प्रनाम चरन धरि माथा।दोन्हि असीस मुदित मुनिनाया। विप्र-वृन्द सब सादर बन्दे । जानि भाग्य बड़राउ अनन्द १॥ चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया, मुनिनाय ने प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दिया। आदर के साथ सय ब्राह्मणवृन्द का वन्दन कर राजा अपने को वजा भाग्यवान समझ कर आनन्दित हुए ॥१॥ कुसल प्रस्न कहि बारहि बारा । विस्वामित्र पहि बैठारा॥ तेहि अवसर आये दोउ भाई । गये रहे देखन फुलवाई ॥२॥ विश्वामित्रजी वारम्वार कुशल-समाचार पूछ कर राजो को बैठाया। उसी समय दोनों भाई-फुलवाड़ी देखने गये थे, वहाँ श्राये ॥२॥ स्याम गौर मृदु बयस किसारा । लोचन सुखद बिस्व-चित चारा । उठे सकल जब रघुपति आये। विस्वामित्र निकट बैठाये ॥३॥ श्यामल गौर वर्ण सुकुमार किशोर अवस्थावाले, नेत्रों को आनन्ददायक और जगत् के चित्त को चुरानेवाले हैं । जच रघुनाथजी आये तव सब उठ खड़े हुए, विश्वामित्रजी ने उन्हें पास में बैठा लिया ॥३॥ भये सब सुखी देखि दोउ भाता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥ मूरति मधुर भनोहर देखी। भयउ विदेह त्रिदेह बिसेखी ign दोनों बन्धुओं को देख कर सब प्रसन्न हुए, सभी के नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया । उनको सुहावनी मनोहर मूर्ति को देख कर राजा विदेह को शरीर काक्षान जाता रहा ॥४॥