पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२६२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २०७ मान कर दोहे का उत्तरार्द्ध राजा पर घटाते हैं कि राजा लरयू में स्नान कर दरबार में गये, तष मुनि का आगमन सुना। पर ऐसा नहीं है। चाo-मुनि आगमन सुना जब राजा । मिलन गयउ लेइ विप्र समाजा॥ करि दंडवत सुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥१॥ अब राजा ने मुनि का आगमन सुना. तब ब्राह्मण मण्डली को साथ लेकर मिलने गये। दण्डवत प्रणाम कर के मुनि का स्वगात किया और लिवा लाकर अपने पालन (राज्यसिंहासन) पर बैठाया ॥१॥ चरन पखारि कीन्हि अति पूजा । मो सम आजु धन्य नहिँ दूजा । विविध भाँति भोजन करवावा । मुनिबर हृदय हरष अति पावा ॥२॥ पाँव धो कर बहुत शुश्रूषा की और कहा कि आज मेरे समान दूसरा कोई धन्य नहीं है। अनेक प्रकार के व्यञ्जन भोजन करवाये, मुनिश्रेष्ठ हदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥२॥ रुद्रट.ने अपने काव्यालंकार-नन्ध में प्रेयान नामक एक और रस का उल्लेख किया है, ' जिसका स्थायीभाव स्नेह है। यहाँ वही रस है। पूज्य मित्र विश्वामित्रजी आलम्बन विभाव हैं। उनका दर्शन उद्दीपन विभाव है। राजा का श्रागे जा कर लिवा लाना, सिंहासन पर वैशाना, पूजा कर के दण्डवत प्रणाम करना आदि अनुभाव हैं। हषश्रादि समचारीभावों से पुष्ट हो कर 'प्रेयानरसा हुआ है। पुनि चरनन्हि मेले सुत चारी । राम देखि मुनि देह बिसारी । भये मगन देखत मुख सेना । जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥३॥ फिर चारों पुत्रों को चरणों में प्रणाम कराया, रामचन्द्रजी को देख कर मुनि अपने शरीर की सुध भूल गये । मुख की शोभा देख कर ऐसे मग्न हो गये, मान पूर्णचन्द्रमा पर चकोर लुभाया हो ॥३॥ चकार चन्द्रमा को देख कर प्रसन्न हो टकटकी लगाता ही है, यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। तब मन हरषि बचन कह राऊ । मुनि अस कृपा न कीन्हेहु काऊ ॥ केहि कारन आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥४॥ तब राजा मन में हर्षित हो कर बचन बोले-हे मुनिराज!ऐसी कृपा आपने कभी नहीं की थी। किस कारण श्रापका आगमन हुआ है ? कहिए, मैं उसको करने में देरी न लगाऊँगा ॥४॥ असुर समूह सतावहिँ माही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही ॥ अनुज समेत देहु रंधुनाथा । निखिचर अध मैं होब सनाथा ॥ ५॥ विश्वामित्रजी ने कहा-हे राजन् ! मुझे राक्षसवृन्द सताते हैं, इसलिए मैं आप से माँगने आया हूँ कि छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रघुनाथजी को दीजिए वो राक्षसों के मारे जाने से मैं सनाथ हो जाऊँगा॥1॥ V