पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२५८

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । २०३ रामचन्द्रजी के अद्भुत बिराट रूप को देख कर माता का आश्वयं स्थायीभाव है । राम- चन्द्रजी पालम्बन विभाव हैं। एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड का लगना, शिव ब्रह्मादि के दर्शन उद्दीपन विभाव हैं। हत्कम्प, स्तम्भ आदि अनुभावों द्वारा व्यक्त हो कर मोह, शङ्का, चपलतादि सञ्चारीभावों की सहायता "अद्भुत रस, हुआ है। तन पुलकित मुख बचन न आवा । नयन मंदि चरनन्हि सिर नावा ॥ बिसमयवन्त - देखि महतारी । भये बहुरि सिसु रूप खरारी ॥३॥ शरीर पुलकित हो गया; मुखले वचन नहीं निकलता है, आँख बन्द करके चरणों में सिर मवाया। माता को श्राश्वयं में डूबी हुई देख कर खर के वैरी भगवान फिर बालक रूप हो गये ॥३॥ अस्तुति करि न जाइ भय माना । जगत-पिता मैं सुत करि जाना ॥ हरि जननी बहु बिधि समुझाई । यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥४॥ माता कौशल्या मन में डर गई, उनसे स्तुति नहीं करते बनती है, पछताती हैं कि मैं ने जगत्पिता को पुत्र समझ लिया था। रामचन्द्रजी ने बहुत तरह से माता को समझाया और कहा हे माई । सुनो, यह गुप्त रहस्य कहीं कहना मत ॥४॥ दो०-बार बार कौसल्या, बिनय करइ कर जोरि । अब जनि कबहूँ व्यापा, प्रभु मोहि माया तारि ॥२०॥ कौशल्याजी बार बार हाथ जोड़ कर विनती करती हैं कि हे प्रभो ! मन भाएकी माया मुझे कभी न व्यापे ॥२०॥ धौल-बाल चरितहरिबहु बिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कह दीन्हा । कछुक काल बीते सब भाई । बड़े भये परिजन सुखदाई ॥१॥ रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार की बाललीला करके सेवकों को अत्यन्त प्रानन्द दिया। कुछ काल बोतने पर सब भ्राता बड़े हुए और कुटुम्बियों को सुख देने लगे ॥१॥ परिजन-सुखदाई, में लक्षणामूलक गुणीभूतव्यङ्ग है कि अत्यन्त बाल्यावस्था का आनन्द केवल रनिवास को प्राप्त था। जब कुछ बड़े हुए तब बाहर आने लगे जिससे कुटुम्ब वालों को वह सुख सुलभ होने लगा। चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई । विप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ५ परम मनोहर चरित अपारा । करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥२॥ गुरुजी ने जा कर मुण्डन-संस्कार किया, फिर ब्राह्मणों ने बहुत सी इतिणा पाई। चारों सलोने कुचर अत्यन्त अपार मनोहर चरित करते फिरते हैं ॥२॥