पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२४०

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । गिरि सरि सिन्धु भार नहिँ माही। जस मोहि गरुअ एक पर-द्रोही। सकल घरम देखा बिपरीता। कहि न सकइ रावन भयभीता ॥३॥ पृथ्वी मन में सोचने लगी कि-पर्वत, नदी और समुद्र का बोझ मुझे नहीं है, जैसा कि एक परद्रोही मुझे गरुश्रा लगता है । सारी बातें धर्म के विपरीत देखती है; किन्तु रावण के डर से कुछ कह नहीं सकती ॥३॥ धेनु-रूप धरि हृदय बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर-मुनि-झारी॥ निज-सन्ताप सुनायेसि रोई । काहूँ कछु काज न होई ॥४॥ दृश्य में विचार कर गैया का रूप धारण करके वहाँ गई जहाँ देवता और मुनिन्द थे। रो कर अपना दुःख कह सुनाया, पर किसी से कुछ काम नहीं हो सका ॥४॥ चवपैया-छन्द । सुर मुनि गन्धर्बा, मिलि करि सर्बा, गे बिरजि के लोका। सँग गा-तनु धारी, भूमि बिचारी, परम बिकल भय सोका ।। ब्रह्मा सब जाना, मन अनुमोना, मारउ कछु, बसाई। जा करि तैं दासी, सेा अबिनासी, हमरउ लार सहाई ॥२॥ देवता, मुनि और गन्धर्व सब मिल कर ब्रह्मा के लोक में गये। साथ में बेचारी भूमि भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल गैया का शरीर धारण किये गई। ब्रह्माजी सब जान गये और मन में विचार कर ले कि मेरा भी कुछ वश नहीं है। जिनकी ते दासी है वे ही परमात्मा हमारी और तेरी भी सहायता करेंगे ॥२॥ साथ--धरनि घरहि मन धीर, कह बिरचि हरि-पद सुमिरु । जानत जन की पीर, प्रभु मजिहि दारुन विपत्ति ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी ने कहा- हे वसुन्धरे ! तू भगवान् के चरणों को स्मरण कर मन में धीरज धारण कर । प्रभु अपने भक्तों को पीड़ा को जानते हैं, वे ही इस विकराल विपत्ति को चूर चूर करेंगे ॥१॥ चौं०-ग्रैठे सुर सब करहिं बिचारा । कह पाइय प्रभु करिय पुकारा। पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयनिधि बस प्रभु साई ॥१॥ सब देवता बैठे. विचार करते हैं कि प्रभु को कहाँ पाऊँ जो रक्षार्थ पुकार करूँ। कोई वैकुण्ठपुर में चलने को कहते हैं और कोई कहते हैं वे स्वामी क्षीरसागर में रहते हैं ॥१॥ २४