पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३८

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प्रथम सोपान, बालकाण्डं । १९३ किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा । हठि सबहो के पन्धहि लागा ॥ ब्रह्म-सृष्टि जहँ लगि तनु-धारी । दसमुख-बसवर्ती नर नारी ॥ ६ ॥ किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग सभी के रास्ते में हठ कर के लग गया। जहाँ तक ब्रह्मा की सृष्टि में शरीरधारी स्त्री-पुरुष हैं, वे सब राषण के अधीन हो गये ॥६॥ आयसु कहिँ सकल भयभोता । नवहि आइ नित चरन बिनीता ॥७॥ संघ प्राणी भयभीत होकर श्राज्ञा पालन करते हैं और नित्य श्रा कर बड़ी नन्नता से चरणों में सिर नवाते हैं ॥ ७ ॥ दोष-भुज-बल बिस्व बस्य करि, राखेसि कोउ न स्वतन्त्र । मंडलीक-मनि रावन, राज करइ निज-मन्त्र । भुजाओं के बल से संसार को वश में कर के किसी को स्वाधीन नहीं रहने दिया अर्थात् . स्वतन्त्रता ( आजादी ) दुनियाँ से उठ गई। सार्वभौम सम्राट रावण अपने मात्र से राज्य करता है। देव जच्छ गन्धर्व तर, किन्नर नाग कुमारि । जीति बरी निज प्राहु-बल, बहु सुन्दरि बर नारि ॥ १२ ॥ देवता, यक्ष, गन्धर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याएँ, अपनी भुजाओं के बल से जीत कर बहुत सी सुन्दर श्रेष्ठ स्त्रियों को विवाह लिया ॥ १२॥ चौ०-इन्द्रजोत सन जो कछु कहेऊ। से। सब जनु पहिलेहि करि रहेऊ ॥ प्रथम जिन्ह कह आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कोन्हा ॥१॥ मेघनाद से जो कुछ कहा वह सप मानों उसने पहले ही से ( इन्द्र को जीत बाँध लङ्का में ला) कर रक्खा । पहले जिन राक्षसों को रावण ने आज्ञा दी, उनका चरित्र सुनिए जो उन्हों ने किया ॥१॥ कारण युद्ध है, वह वर्णन न करके काय प्रकट करना कि मेघनाद ने इन्द्र को मानों पहले ही से जीत रक्खा था 'अत्यतातिशयोक्ति अलंकार' है। देखत भीम-रूप सब पापी। निसिचर-निकर देव-परितापी । करहिँ उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहि करि माया ॥२॥ सब राक्षस- समूह देखने में डगवने रूपवाले, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले हैं। घे असुर कपट से नाना रूप धरते हैं और असंख्यों प्रकार के उत्पात करते हैं ॥२॥ जेहि बिधि होइ धरम-निर्मूलो । सेा सब करहि बेद-प्रतिकूला ॥ जेहि जेहि देस धेनु द्विज पावहि । नगर गाँउ पुर आगि लगावहिं ॥३॥ जिस प्रकार धर्म का नाश हो, वह सब करनी वेद से विपरीत करते हैं। जिस जिस देश में गैया और ब्राह्मण पाते हैं, उस नगर, गाँव और पुरवा में भाग लगा देते हैं ॥ ३ ॥ , 1