पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३१

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धरनी ॥३॥ रामचरित मानस । १७६ चौक-अस कहि सब महिदेव सिधाये। समाचार पुरबासिन्ह पाये । सोचहिँ दूषन दैवहिँ देहीं । बिरचत हंस काग किय जेहीं॥१॥ ऐसा कह कर सब ब्राह्मण चले गये, यह समाचार नगरवासियों ने सुना। वे चिन्ता कर के विधाता को दोष देते हैं, जिसने राजहंस बनाते हुए कौना कर दिया ॥१॥ प्रस्तुत वृत्तान्त तो राजा भानुप्रताप को दूषण देना है कि जिन्होंने अपार सत्कर्म कर भगवान् को अर्पण किया; किन्तु कभी किसी फल की इच्छा मन में नहीं ले आये। उन्होंने कपटी-मुनि से ऐसा असम्भव वर माँगा जिससे अपना सर्वनाश ही कर डाला, इसे न कह कर विधाता को दोष देना कि हंस से कौना बनाया 'ललित अलंकार' है उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर असुर तापसहि खबरि जनाई। तेहि खल जहँ तहँ पत्र पठाये । सजि सजि सेन भूप. सब आये ॥२॥ पुरोहित को घर पहुँचा कर राक्षस ने तपस्वी को सबर दिया। उस दुष्ट ने जहाँ तहाँ पत्र भेजा, सब राजा सेना सज सज कर चढ़ पाये ॥६॥ घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई । जूझै सकल सुभट करि करनी । बन्धु समेत परेउ नृप डबा बजा कर नगर घेर लिया, अनेक प्रकार की लड़ाई नित्य होने लगी। सब शूरवीर को फरनी कर वे जूझ गये, भाई के सहित राजा मानुप्रताप धरती पर कट पड़े ॥३॥ सत्यकेतु-कुल कोउ नहिं बाचा । विप्र-साप किमि होइ असाँचा। रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज-पुर गवने जय जस पाई ॥४॥ सत्यकेतु के वंश में कोई भी नहीं बचा, बामणों का शाप झूठ कैसे हो सकता है ? सक राजाओं ने शव को जीत कर नगर यसायां और विजय-यश पा कर अपनी राजधानी को चले गये ॥॥ दो०-भरद्वाज सुनु जाहि जत्र, हाइ बिधाता बाम । धूरि मेरु सम जनक जम, ताहि ब्याल सम दाम ॥ १५ ॥ याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-हे भरद्वाज सुनिए, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसे धूलि सुमेरु पर्वत के समान, पिता यमराज के तुल्य और रस्सी साँप के बराबर हो जाती है ॥१७॥ चौ०-काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा । भयउ निसाचर सहित समाजा। दस-सिर ताहि बीस-भुजदंडा। रावन नाम घोर बरिखंडा ॥९॥ हे मुनि ! सुनिए, समय पाकर वह राजा अपने समाज सहित गतस हुआ, उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं, रावण नाम बड़ा बलवान् सुभट हुआ ॥ १॥