पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२३०

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१७५ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । वाणी की । राजा आकाशवाणी सुन कर विकल हो गये, किन्तु होनहार-वश बोल न सके, अब भी उनकी बुद्धि मोह में भूली है । यदि गुरु की लीला कह देते तो ब्राह्मण सहसा शाप न देते, पर भावी कुछ और ही है उसने बोलने न दिया। आवेग और मोह सचारी भाव है। दो०-बोले बिन्न सकोप तब, नहिँ कछु कीन्ह बिचार । जाइ निसाचर होहु नृप, मूढ़ सहित परिवार ॥ १७३ ॥ तब ब्राह्मण मोध कर के बोले, उन्होंने कुछ विचार न कर के कहा-अरे मूर्ख राजा! कुटुम्ब के सहित जा कर राक्षस हो ॥१७॥ चौ०-छत्रबन्धु तैं बिग बोलाई । घालइ लिये सहित समुदाई ॥ ईस्वर राखा धरम हमारा । जइहसि तैं समेत परिवारा ॥१॥ रेअधम क्षत्री! तू ने ब्राह्मणों को बुला कर परिवार के सहित नारा (पतित) करना चाहा, ईश्वर ने हमारा धर्म रख लिया, तू कुटुम्य समेत प्रापही नष्ट हो जायगा ॥१॥ सम्बत मध्य नास तव होऊ । जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥ नृप सुनि साप बिकल अति त्रासा। भइ बहोरि बर गिरा अकोसा ॥२॥ वर्ष के बीच में तेरा नाश होगा, कुल में कोई पानी देनेवाला न रहेगा। शाप सुन कर राजा अत्यन्त व्याकुल और भयभीत हुए, फिर श्रेष्ठ श्राशाकवाणी हुई ॥२॥ पर गिरा अकासा' से यह व्यजित होता है कि पहले की आकाशवाणी राक्षस कत प्रश्नष्ट थी। ब्रह्मणों ने उसे ब्राह्मवाणी समझ कर धोखा खाया। यह लक्षणामुलक गूढ़ व्यङ्ग है। बिप्रहु साप बिचारि न दीन्हा । नहिँ अपराध भूप कछु कीन्हा । चकित विप्र सब सुनि नभ बानी । भूप गयउ जहँ भोजन-खानी ॥३॥ हे ब्राह्मणों ! विचार कर शाप नहीं दिया, राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया है। यह आकाशवाणी सुन कर सत्र ब्राह्मण आश्चर्य में डूब गये और राजा रसोई के घर में गये ॥३॥ तहँ न असन नहिँ विप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपोरा ॥ सब प्रसङ्ग महिंसुरन्ह सुनाई । त्रसित परेउ अवनी अकुलाई ॥४॥ वहाँ न भोजन है और न रसोई बनानेवाला ब्राह्मण है, अंपार सोचयुक्त मन से राजा लौटे। सारी कथा ब्राह्मणों को सुनाई और भयभीत हो घबरा कर धरती पर गिर पड़े ॥४॥ दो--भूपति भावी मिटइ नहि, जदपि न दूषन तोर । किये अन्यथा होइ नहि , विप्र-साप अति घोर ॥१७॥ ब्राह्मणों ने कहा-हे राजन् ! यद्यपि तुम्हारा कोई दोष नहीं है, पर होनहार नहीं मिट सकता । ब्राह्मणों का शाप बड़ा भीषण है, वह किसी तरह झूठ न होगा ॥ १७ ॥