पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२१८

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N प्रथम सोपान, बालकाण्ड । दो०-निसा-घोर गम्भीर-बन, पन्ध न सुनहु सुजान। बसड्डु आजु अस जानि तुम्ह, जायहु होत बिहान ॥ हे सुजान ! सुनिए, रात भयङ्कर (अधेरी) है और इस धने वन में रास्ता नहीं है। ऐसा समझ कर आज तुम यहाँ रह जाओ, सवेरा होते चले जाना। तुलसी जसि भवितव्यता, तैसी मिलइ सहाइ । आपु न आवइ ताहि पहि, ताहि तहाँ लेइ जाइ ॥१५॥ तुलसीदासजी कहते हैं-जैसा होनहार होता है वैसी ही सहायता मिल जाती है। मावी होनेवाले के पास नहीं आती तो उसी को वहाँ (घटना स्थल पर पहुंचा देती है ॥१५॥ कहाँ राजा भानुप्रताप की राजधानी और कहाँ यह वनवासी कपट मुनि ! भावी की प्रबलता देखिए, उसने भानुप्रताप को पेव में फंसा कर इस घोहड़ जङ्गल में कपटी के पास पहुँचा ही दिया । उसी की प्ररणा से विश राजा कपट वेशधारी शव को नहीं पहचान सके। चौ०-भलेहि नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥ नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बन्दि निज-भाग्य सराही ॥१॥ राजा ने कहा-बहुत अच्छा स्वामिन्, आज्ञा सिर पर रख कर घोड़े को पेड़ से बाँध दिया और आप बैठ गये। राजा भानुप्रताप ने बहुत प्रकार उसकी बड़ाई की और चरणों में प्रणाम कर के अपने भाग्य की सराहना की ॥१॥ पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई । जानि पिता करउँ ढिठाई ॥ मोहि मुनीस सुत सेवक जानी । नाथ नाम निज कहउ बखानी ॥२॥ फिर सुन्दर कोमल वाणी से बोले-हे प्रभो ! आप को पिता के समान जान कर दिठाई करता हूँ (क्षमा कीजिए)। हे मुनिनाथ ! मुझे अपना पुत्र और सेवक समझ कर अपना नाम बखान कर कहिए ॥२॥ तेहि न जान नपन्टपहि से जाना । भूप सुहृद से कपट सयाना ॥ बैरी पुनि छत्री पुनि राजा । छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥३॥ राजा भानुप्रताप उसको नहीं जानते हैं, पर वह राजा को जानता है, राजा शुद्ध हृदय हैं; किन्तु वह धोखेबाज़ी में निपुण हैं। एक तो शत्रु: दूसरे क्षत्रिय; फिर राजा; छल के वल से वह अपना काम (विजय) करना चाहता है ॥३॥ अनिष्ट करने के लिए एक शत्र ही काफी कारण है, तिस पर क्षत्रिय, वैरी और राजा अन्य प्रबल हेतु भी वर्तमान हैं 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। समुझि राज-सुख दुखित अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥ सरल बचन ठप के सुनि काना । वयर सँभारि हदय हरषाना ॥४॥ राज्य का सुख समझ कर (मन में वह राजा भानुभताप का ) शत्रु दुखी था। उसकी छाती आवर्षों की श्राग की तरह सुलगती थी। राजा भानुप्रताप को सीधी (छल-हीन ) बात कान से सुन कर और दुश्मनीको याद कर के हृदय में प्रसन्न हुभा ॥४॥