पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/२०८

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। , प्रथम सोपान, बालकाण्ड । है । रत्नजड़ित चौकी युक्त घुटने तक लटकनेवाला सुवर्ण का हार 'पदिकहार' कहाता है। 'श्रीवत्स' विष्णु भगवान का नाम है, भृगुलता नहीं, भृगुलता को 'श्रीवत्सलाच्छन' कहते हैं। केहरि-कन्धर चारु जनेऊ । बाहु बिभूषन सुन्दर सुन्दर तेऊ॥ करि-कर सरिस-सुभग भुजदंडा । कटि निषा कर सर कोदंडा ॥१॥ सिंह के समान कन्धों पर शोभन जनेऊ है, बाहु पर गहने भी सुन्दर हैं। हाथी के सूंड़ के समान मनोहर भुजदण्ड हैं, कमर में तरकस, हाथ में धनुष और बाण शोभित हैं ॥४॥ दो०--तड़ित बिनिन्दक पीत-पट, उदर रेख बर तीनि ॥ नाभि मनोहर लेति जनु, जमुन-भँवर छबि छीनि ॥१४॥ पीताम्बर बिजली की शोभा को रद करनेवाला और पेट में अच्छी तीन लकीरे हैं। नाभी (घोड़री) ऐसी मनोहर मालूम होती है मानो वह यमुना के भवरों की शोभा को छीन लेती हो ॥ १४७ ॥ नाभी का भवरों की छवि छीनना असिद्ध आधार है। इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना प्रसिद्धविषया हेतूप्रेक्षा अलंकार' है। चौ-पद-राजीव बरनि नहि जाही। मुनि मन मधुपबसहि जिन्ह माहीं ॥ बाम भाग समिति अनुकूला । आदि सक्ति छबि-निधि जग-मूला॥१॥ उन चरण-कमलों का वर्णन नहीं किया जा सकता, जिनमें मुनियों के मन रूपी भ्रमर निवास करते हैं । जगत् की मूल कारण, छधि की राशि आदिशक्ति बाँई ओर समान रूपसे शोभित हैं ॥१॥ जासु अंस उपजहिँ गुन खानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥ भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम-दिसि सीता साई ॥ २॥ जिस (आदिशक्ति) के अंश से असंख्यों गुणों की खानि लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती उत्पन्न होती हैं, जिनकी भौहों के इशारे से जगत् होता है, रामचन्द्रजी की बाई भोर वेही सीताजी हैं ॥२॥ छवि-समुद्र हरि रूप' बिलोकी । एक टक रहे नयन पट रोकी ॥ चितवहि सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहि मनु सतरूपा ॥३॥ छवि के समुद्र भगवान का रूप देखकर एक टक हो गये, आँखों की पलकें रोक कर आदर के साथ अपूर्व शोभा देखने में मनु-शतरूपा तृप्ति नहीं मानते हैं ॥ ३ ॥ हरष-बिबस तनु दसा झुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥ सिर परसे प्रभु निज-कर-कजा । तुरत उठाये करुना-पुञ्जा ॥४॥ अधिक हर्ष से शरीर की सुध भुला गई, हाथ से पाँव पकड़ कर डण्डे की तरह गिर पड़े। दया की राशि प्रभु रामचन्द्रजी ने अपने कर-कमलों को उनके मस्तक पर स्पर्श कर के तुरन्त उठा लिया॥४॥ 5 39