पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१९१

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रामचरित-मानस । १३६ काम-कला कछु मुनिहिँ न ब्यापी । निज-भय डरेउ मनेाभव पापो ॥ सीम कि चापि सकइ कोउ तासू । बड़ रखवार रमापति जासू ॥४॥ कामदेव को हुनरबाज़ी मुनि को कुछ भी नहीं व्यापी, तब पापी मनोज अपने ही डर से डरा। क्या कोई उसकी मर्यादा दवा सकता है, जिसके बड़े भारी रक्षक लक्ष्मीकान्त हैं? (कदापि नहीं) ॥४॥ दो०-सहित सहाय समीत अति, मानि हारि मन मैन । गहेसि जाइ मुनि चरन तब, कहिं सुठि आरत बैन ॥१६॥ जब अपने सहायकों के समेत कामदेव मन में हार मान कर बहुत ही भयभीत हुआ। तब सुन्दर दीनताभरी वाणी कह कर मुनि के चरणों को जा पकड़ा ॥१२६॥ मुनि के प्रभाव को देख कर कोम के मन का उत्साह जाता रहा, भयस्थायीभाव का सवार हुश्रा। उत्साह पूरा पढ़ा, इतने ही में भय ने उसे दवा दिया, भावशान्ति है । गुटका में 'गहेसि जाइ मुनि चरन कहि, सुठि भारत मृदु बैन' पाठ है। चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा। नाइ चरन सिर आयसु पाई। गयउ मदन तव सहित सहाई ॥१॥ नारदजी के मन में कुछ क्रोध नहीं हुआ, वरन प्रिय वचन कह कर कामदेव को सन्तुष्ट किया। मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनको श्राज्ञा पा कर कामदेव अपने सहायको के सहित चला गया ॥१॥ मुनि सुसीलता आपनि करनी । सुरपति-सभा जाइ सब बरनी ॥ सुनि सब के मन अचरज आवा । मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिर नावा ॥२॥ उसने इन्द्र की सभा में जा कर अपनी सारी करतूत और मुनि के पवित्राचरण का वर्णन किया । वह सुन कर सब के मन में आश्चर्य हुआ, मुनि की बड़ाई कर के भगवान् को तव नारद गवने सिव पाहीँ । जिता काम अहमिति मन माहौँ । मार चरित सरहि सुनाये। अति प्रिय जानि मईस सिखाये ॥३॥ तब नारदजी के मन में कामदेव के जीतने का घमण्ड हुना, चे शिवजी के पास,गये । मनोज का चरित्र शङ्करजी को सुनाया, शिवजी ने उन्हें बहुत प्रिय जान कर सिखाया ॥३॥ काम को जीत कर नारदजी शङ्कर के पास सगर्व इसलिए गये कि अब मैं ने काम को जीत लिया। श्राप के समान मैं भी मदनारि हुश्रा । यह व्यञ्जनामूलक गूढ़ व्यंग है । बार बार बिनवउँ मुनि तोही । जिमि यह कथा सुनायहु माही॥ तिमि जनि हरिहि सुनायहु कबहूँ। चलेहु प्रसंङ्ग दुरायहु तबहूँ ॥४॥ हे मुनि ! मैं आप ले बार बार प्रार्थना करता हूँ कि जिस तरह यह कथा आपने मुझे सुनाई है, उस तरह (अहमत्व के साथ) विष्णु भगवान को मत सुनाना, चर्चा चले तब भी इसको छिपाना (पकट न करना) nam मस्तक नवाया ॥२॥