पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७५

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रामचरित मानस । १२२ अउरउ राम-रहस्य अनेकाः । कहहु नाथ अति विमल बिका । जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई । सोउ दयाल' रोखहु जनि गाई ॥२॥ और भी रामचन्द्रजी के अनेक रहस्य (छिपी हुई लीला) है, हे नाथ ! आप अतिशय निर्मल ज्ञानवाले हैं, उन्हें कहिए । हे दयालु प्रभो ! जो मैं ने न पूछा हो, उसे भी छिपा न रखिए ( वर्णन कीजिये) ॥२॥ पार्वतीजी ने चौदह प्रश्न किये, वे क्रमशः ये हैं। (१) दया कर के रघुनाथजी की कथा कहिए । (२) निर्गुण ब्रह्म शरीरधारी सगुण कैसे हुए १ (३॥ राम अवतार । (४) बाललीला । (4 जानकी को कैसे विवाहा । (६: राज्य किसके दोष से तजा (७) वन में अनेक लीलाएँ कौं। () जैसे रावण को मारा । (६) राज्य पर बैठ कर बहुतेरी लीलाएँ की । (१०) प्रजा सहित कैसे स्वधामगये । (११) ज्ञानी मुनि किस तत्वज्ञान में डूबे रहते हैं। (भक्ति, ज्ञान, विज्ञान वैराग्य कहिए । (१३) और भी रामचन्द्रजी की गुप्तलोलाएँ । (१४) जो मैं ने न पूछा हो वह भी छिपान रहिए, कहिये। तुम्ह त्रिभुवन गुरु बेद बखाना । आन जोव पांवर का जाना। प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छठ विहीन सुनि सिव म न पाई ॥३॥ आप को वेद नीनों लोको का गुरु बखानते हैं, श्राप के समान दूपर नीच जीव क्या जान सकते हैं । पार्वती के सरल सुन्दर छन-रहित प्रश्न सुन कर शिवजी के मन में अच्छे लगे ॥३॥ 'प्रश्न' शब्द को सर्वत्र गोसाँईजी ने स्त्रीलिङ्ग मान कर प्रयोग किया है। हर हिय राम-चरित सब आये। प्रेम पुलक लोचन जलं छाये । नीरघुनाथ-रूप उर आवा । परमानन्द अमित सुख पावा ॥४॥ शिवजी के हदय में सव रामचन्द्रजी के चरित्रों का स्मरण हो आया, शरीर प्रेम से पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आये । श्रीरघुनाथजी का रूप हदय में आया जिससे - वे अत्युत्तम अपार श्रानन्द को प्राप्त हुए ॥४॥ दो०-भगन ध्यान-रस दंड जुग, पुनि मन बाहेर कीन्ह । रघुपति-चरित महेस तय, हरषित बरनइ . लीन्ह ॥१११॥ दो घड़ी पर्यन्त ध्यान के श्रानन्द में मन्न रहे, फिर मन को ( ध्यान से ) बाहर किया। तव प्रसन्न होकर शिवजी रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे ॥ १११ ॥ To-झूठउ सत्य जाहि विनु जाने । जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचाने॥ जेहि जाने जग जाइ हेराई । जागे जथा सपन श्रम जाई ॥१॥ जिनके विना जोने झूठ ( संसार) भी ऐसा सच मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप की भ्रान्ति होती है। जिनके जान लेने पर संसार इस तरह खो जाता है, जैसे जागने पर स्पप्न का भ्रम ( बिना किसी यत के आप ही आप ) दूर होजाता है ॥ ६ ॥ चौ०-