पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१७१

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कुन्द-इन्दु-दर गौर रामचरित मानस । ११८ निज कर डासि नाग-रिपु-छाला । बैठे सहजहिँ सम्भु कृपाला ॥ सरीरा । झुज-प्रलम्ब परिधन-मुनि-चीरा ॥३॥ अपने हाथ से सिंह-चर्म विछा कर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही बैठ गये । उनका शरीर फूल, चन्द्रमा और शह के समान उज्ज्वल है, भुजाएँ लम्बी हैं, मुनियों के वस्त्र धा. रण किये हैं॥३॥ कुन्द, चन्द्र और शङ्ख इन तीनों उपमानों में भिन्न भिन्न श्राशय की मालोपमा है । कुन्द के समान कोमल, उज्ज्वल, चन्द्रमा के तुल्य श्वेत प्रकाशमान और शहद के सदश सफेद तथा कठिन। तरुन-अरुन-अम्बुज सम चरना । नख-दुति भगत-हृदय-तम-हरना । भुजग-भूति-भूषन त्रिपुरारी । आनन सरद-चन्द-छवि हारी ॥४॥ नवीन खिले हुए लाल कमल के समान चरण हैं, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अन्धकार ( अज्ञान )हरनेवाली है ! जो साँप और विभूति को भाभूषण धारण किए हैं, वे त्रिपुर दैत्य के शत्रु हैं और उनके मुख की छषि शरदकाल के चन्द्रमा की शोभा को हरनेवाली है ॥४ दो--जटा-मुकुट-सुरसरित सिर, लोचन नलिन बिसाल । नीलकंठ लावन्यनिधि, साह बाल-बिधु-माल ॥१६॥ सिर पर जटाओं का मुकुट है उसमें गहाजी विराजमान हैं, उनके कमल के समान विशाल नेत्र हैं, गला नीलेरङ्ग, सुन्दरता का स्थान है और मस्तक पर वाल (द्वितीषा के ) चन्द्रमा शोभायमान हैं ।१०६॥ चौक-बैठे साह काम-रिपुं कैसे । घरे सरीर सान्त-रस जैसे । पारबतीभल अवसर जानी। गई सम्झु पहिँ मातु भवानी ॥१॥ काम के बैरी बैठे हुए ऐसे शोभित हैं' जैसे शरीरधारी शान्त रस शोभायमान हो । माता भवानी, पार्वतीजी अच्छा समय जान कर शम्भु के पास गई ॥१॥ जानि प्रिया आदर अति कीन्हा । बाम-भाग आसन हर दीन्हा । बैठी सिव समीप हरपाई । पूरब-जनम-कथा चित आई ॥२॥ प्यारी समझ कर बड़ा श्रादर किया और वाएँ भाग में शिवजी ने उन्हें श्रासन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के समीप बैठ गई, उनके मन में पूर्व जन्म की कथा की सुध हो पाई ॥२॥ शृन्द के श्लेष द्वारा कविजी एक गुप्त अर्थ प्रकट करते हैं कि सती के शरीर से जो चाम-भाग का आसन हर लिया था वह दिया 'विवृतोक्ति अलंकार' है 1