पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५५

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रामचरित मानस । १०२ हृदय बिचारि सम्झु प्रभुताई । सादर मुनिवर लिये बोलाई । सुदिन सुनखत सुघरी सोचाई । बेगि बेद विधि लगन धराई ॥२॥ शिवजी की प्रभुता मन में विचार कर श्रादर-पूर्वक मुनियों को बुलवाया । सुन्दर दिन, उत्तम नक्षत्र, शुभ घड़ी सेधिवा फर वेद की रीति से लग्न निश्चय कराया ॥ २॥ पत्री सप्तरिषिन्ह सो दीन्ही । गहि पद विनय हिमाचल कीन्ही॥ जाइ विधिहि तिन्ह दीन्हि से पाती। बाँचत प्रीति न हृदय समाती ॥३॥ वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दी और पाँव पकड़ कर हिमाचल ने विनती की। पत्रिका लेजाकर मुनियों ने ब्रह्माजी को दी, बाँचते समय विधाता के हृदय में प्रीति उमड़ी पड़ती है ॥३॥ लगन बाँचि बिधि सबहि सुनाई। हरषे सुनि सत्र सुर समुदाई ॥ सुमन वृष्टि नभ बाजन बाजे । मङ्गल कलस दसहु दिसि साजे ॥४म लग्न पढ़ कर ब्रह्मा ने सभी को सुनाया, उसे सुन कर सब देवताओं का समाज प्रान. न्दित हुआ। आकाश से पुष्प-वर्षा हुई और बाजे बजने लगे, दसों दिशाओं में मल-कलश सजने लगे ॥४॥ दो०-लगे सँवारन सकल सुर, वाहन विविध विमान । होहि सगुन मङ्गल सुखद, कहिँ अपछरा गान ॥१॥ समस्त देवता नाना प्रकार की सवारियाँ और विमान सजाने लगे। सुखदायक मान- लोक सगुन हो रहे हैं और अप्सगएँ गान करती है। चौ०-सिवहि सम्भुगन करहिं सिंगारा । जटा-मुकुट अहि-मौर सँवारा ॥ कुंडल कङ्कन पहिरे ब्याला । तन-विभूति पट-केहरि-छाला॥१॥ शम्भु गण शिवजी का शृङ्गार करने लगे, उन्होंने जा का मुकुट और साणे का मौर सजाया । साँप ही के कुण्डल और कङ्कण पहने हैं, शरीर पर भस्म रमाये तथा सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये हैं। ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा । नयन-तीनि गरल-कंठ उर नर-सिर-माला । असिव-बेष सिव-धाम कृपाला ॥२॥ माथे पर चन्द्रमा, सिर में सुन्दर गङ्गाजी, तीननाँख, साँ केजनेऊ, गले में विप, और क्य पर नरमुण्डो की माला शोभित है। कृपालु शिवजी अमल वेशमें रहकर मङ्गलके धाम है॥२॥ कर त्रिसूल अरु डमरु विराजा । चले बसह चढ़ि बाजहिँ बाजा । देखि सिर्हि सुर-त्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥३॥ हाथ में त्रिशल और डमरू वाजा विराजित है, बैल पर चढ़ कर चले, वाजे बज रहे हैं। शिवजी को देख कर देवाङ्गनाएँ मुस्कुराती हैं और परस्पर कहती हैं कि संसार में दूलह के . उपबीत-भुजङ्गा॥ योग्य दुलहिन नहीं है ॥ ३॥