पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१५४

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प्रथम सोपान, बालकाण्डे । १०१ चौ०--सुनि बोली मुसुकाइ भवानी । उचित कहेउ मुनिबर विज्ञानी ॥ जान काम अब जारा । अब लगि सम्भु रहे सबिकारा॥१॥ सुन कर भवानी मुस्कुरा कर बोली, श्राप लेग विज्ञानी और मुनिश्रेष्ठ हैं, ठीक कहते हैं। आप की समझ में शिवजी ने अब काम को जलाया; किन्तु अब तक वे उसके दोष के अधीन थे॥१॥ 'मुनिवर विज्ञानी' शब्द में स्फुट गुणीभूत व्यक है कि विज्ञानी मुनियों का अज्ञानी की तरह यात कहना, बड़े आश्चर्य की बात है। हमरे जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी। जौं मैं सिव सेयेउँ अस जानी। प्रीति समेत करम-मन-बानी ॥२॥ हमारी समझ में शिवजी सदा योगी, अजन्मे, निदोष, निकाम और विषयविलास से रहित हैं; यदि मैंने ऐसा जान कर कर्म, बचन और मन से प्रीति के साथ शङ्करजी की सेवा तो हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिँ सत्य कृपानिधि ईसा ॥ जो कहा हर जारेउ मारा । सो अति बड़ अविबेक तुम्हारा ॥३॥ तो हे मुनीश्वर ! सुनिये, हमारी प्रतिज्ञा को कृपानिधान शङ्करजी सत्य करेंगे (वह कभी भूठी न होगी) । आपने जो कहा है कि शिवजी ने कामदेव को जलाया, यह श्रापका बहुत बड़ा अशान है ॥ ३॥ अशान इसलिये कहा कि इन वाक्यों से शिवजी पर दोषारोप की झलक है कि अब उन्होंने काम को जलाया पहले सकाम थे। तात अनल कर सहज सुमाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिँ काऊ ॥ गये समीप सो अवसि नसाई । असि मनमथ महेस कै नाई ॥४॥ हे तात ! अग्नि का सहज स्वभाव है कि पाला उसके समीप कभी नहीं जाता। उसके पास जाने से वह अवश्य नष्ट होता है, महेश के निकट जाने से यही दशा कामदेव की हुई ॥४॥ दो-हिय हरष मुनि बचन सुनि, देखि प्रीति बिस्वास । चले मवानिहि नाइ सिर, गये हिमाचल पास ॥०॥ यह बचन सुन कर और उनकी प्रीति विश्वास देख कर मुनि लोग मन में प्रसन्न हुए। पार्वतीजी को प्रणाम करके हिमवान् के पास गये ॥ ६ ॥ चौ०-सबप्रसङ्गगिरि पतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुख पावा ॥ बहुरि कहेउ रति करबरदाना । सुनि हिमवन्त बहुत सुख माना ॥१॥ सब बाते गिरिराज को सुनाई; कामदेव का जलना सुन कर वे अत्यन्त दुखी हुए। फिर रति के बरदान का वृत्तान्त कहा, वह सुन कर हिमवान् बहुत सुखी हुए ॥१॥