पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३७

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. रामचरित मानसं । पुनि परिहरे सुखाने सुखाने परना । उमहिँ नाम तय भयउ अपरना। देखि उमहि तप-खीन-सरीरा । ब्रह्म-गिरा भइ गगन गभीरा ॥४॥ फिर सूखे पत्तों को भी त्याग दिया, तब उमा का नाम अपर्णा हुा । तपस्या से पार्य: तीजी का खिन्न शरीर देख कर आकाश से गम्भीर ब्रह्म-वाणी हुई ॥४॥ दो-अयउ मनोरथ सुफल तव, सुनु गिरिराज-कुमारि । परिहरु दुसह कलेस सन्न, अब मिलिहहि त्रिपुरारि ॥७॥ हे पर्वतराज की कन्या ! सुन तेरा मनोरथ सफल हुश्रा । तू सव असहनीय कष्टों को छोड़ दे, अव तुझे शिवजी मिलेगे ॥७॥ चौ०-अस तप काहुन कीन्ह भवानी। भये अनेक धीर मुनि ज्ञानी ॥ अब उर धरहु ब्रह्म-बर-बानी । सत्य सदा सन्तत सुचि जानी ॥१॥ हे भवानी ! असंपयाँ धोरमुनि ज्ञानी हुए हैं, पर ऐसा तप किसी ने नहीं किया । अब तुम श्रेष्ठ ब्रह्म वाणी को सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जान कर अपने हदय में रक्खो ॥६॥ आवहिँ पिता बुलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जायहु तबहीं । मिलहिँ तुम्हहिँ जब सप्त-रिपीसा ! जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥२॥ जब तुम्हारे पिता वुलाने श्रावें तब हठ छोड़ कर घर जाना । जय तुम्हें सप्त ऋपीश्वर मिलें, तब मेरी बात को ठीक (शिवजी के प्राप्त होने को समय ) समझना ॥२॥ सुनत गिरा विधि गगन बखानी । पुलकगात गिरिजा हरपानी ॥ उमा चरित सुन्दर मै गावा । सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा ॥३॥ इस तरह आकाश से वखानी हुई ब्रह्मा की वाणी को सुन कर पार्वतीजी प्रसन्नई और उनका शरीर प्रेम से पुलकित हो गया। याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि मैं ने उमा का सुंदर चरित्र गान किया, अब शिवजी की सुहावनी कथा सुनिये ॥३॥ जव तें. सती जाइ तनु त्यागा । तब तैं सिव-मन भयउ बिरागा । जपहिँ सदा रघुनायक-नामा । जहँ तहँ सुनहिँ राम-गुन-ग्रामा ॥४॥ जब से सती ने जाकर वन त्याग किया, तब से शिवजी के मन में विराग हुा । सदा रघुनाथजी को नाम जपते हैं और जहाँ तहाँ रामचन्द्रजी के गुण की कथा सुनते हैं ॥४॥ . शङ्का-क्या पहले शिवजी में वैराग्य नहीं था ? जो कहते हैं कि जब से सती ने तनु त्यागा, तब से शिवजी के मन में विराग हुआ ! उत्तर-यहाँ कैलास पर रहने से मन उचटने की बात है, क्योंकि सतीजी के साथ तरह तरह का सत्संग और हरिकथा होती थी। इस विक्षेपसे उचाट हुआ, तब कैलास छोड़ कर जहाँ तहाँ विचरने और राम-गुण ग्राम सुनने लगे।