पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ६५ तप-बल. रचइ प्रपञ्च विधाता । तप-बल विष्नु सकल-जग-त्राता तप-अल सम्मु करहि संहाग। तप-बल सेष धहि महि भारा ॥२॥ तप के बल से ब्रह्मा संसार की रचना करते हैं, तप के वल से विष्णु सारे जगत् का पालन करते हैं, तप के बल से रुद्र संहार करते और तप के वल से शेषनाग पृथ्वी का बोझ धारण करते हैं ॥२॥ तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तप अस जिय जानी ३ सुनत बचन बिसमित महँतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥३॥ हे भवानी ! लय सृष्टि तप के ही सहारे पर है, ऐसा मन में समझ, तू जा कर तपस्या कर । यह वचन सुन कर माता को बड़ा आश्चर्य हुश्रा और हिमवान को बुला कर वह स्वम उनसे कह सुनाया ||३ मातु-पितहि बहु बिधि समुझाई । चली उमा तप-हित हरषाई ॥ प्रिय परिवार पिता अरु माता। भये विकल मुख आव न बाता ॥४॥ माता-पिता को बहुत तरह समझा कर प्रसन्नता पूर्वक पार्वतीजी तप के लिये चली। प्यारे कुटुम्बीजन, पिता और माता व्याकुल हो गये, मुख से बात नहीं आती है ॥ ४ ॥ दो-बेदसिरा-मुनि आइ तब, सनहिँ कहा समुझाइ । पारबती महिमा सुनत, रहे प्रबोधहि पाइ ॥७३॥ तब वेदशिरा मुनि ने श्रा कर सब को समझा कर कहा । पार्वतीजी की महिमा को सुन कर सभी के मन में लन्तोष हुत्रा ॥७३॥ चौ०-उर धरि उमाप्रान-पति-चरना। जाइ बिपिन लागी तप करना । अति सुकुमारि न तनु तप जोगू । पति-पद सुमिरितजे सब भागू॥१॥ प्राणपति के चरणों को हृदय में रख कर पार्वतीजीबन में जा कर तप करने लगी। उनका अत्यन्त कोमल शरीर तपस्या के योग्य नहीं है, तो भी स्वामी के चरणों का स्मरण कर उन्होंने सब भोग तज दिये ॥ ॥ नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहि मन लागा ॥ सम्बत सहस मूल फल खाये । साग खाइ सत बरष गँवाये ॥२॥ स्वामी के चरणों में नित्य नया प्रेर उत्पन्न हो रहा है, तप में ऐसा मन लगा कि शरीर को सुध भूल गई। एक हजार वर्ष मूल-फल खाया और सौ वर्ष साग खा कर बिताया ॥२ कछुः दिन भोजन बारि बतासा । किये कठिन कछु दिन उपवासा ॥ बेल-पाति महि पर सुखाई । तीनि सहस सम्बत से खाई ॥३॥ कुछ दिन जल और वायुका भोजन और कुछ दिन कठोर उपवास किया । पृथ्वी पर गिरी दुई खुखी बेल की पत्तियों को तीन हजार वर्ष तक खाया ॥३॥