पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१३२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ८१ गुरुजनों की लाज से चतुराई पूर्वक प्रीति को छिपाना 'अवाहित्य सञ्चारीभाव' है और अपनी पूर्वकृत् दुर्नीति के विचार से मिलने का सन्देह 'शङ्का सञ्चार्गभाव' है। ठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहिँ दम्पति सखी सयानी। उर धरि धीर कहइ गिरिराज । कहहु नाथ का करिय 'उपाऊ ॥ १ ॥ नारदजी की वाणी झूठी न होगी, (यह सोचकर) सयानी सखियाँ और मैना के सहित हिमवान चिन्ता करने लगे। शैतराज ने हदय में धीरज धारण करके कहा-हे नाथ ! कहिए; क्या उपाय किया जाय?॥४॥ दो०-कह मुनीस हिमवन्त सुनु, जो विधि लिखा लिलार । देव. दनुज नर नाग मुनि, कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥ मुनीश्वर ने कहा-हे हिमवन्त ! अनिए, ब्रह्मा ने जो लखाट में लिखा है, उसको देवता, दैल्य, मनुष्य, नाग और मुनि कोई मिटानेवाला नहीं है ॥ ६ ॥ चौ-तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करइ ,जौं दैव सहाई ॥ जस घर मैं बरनेउँ तुम्ह पाही । मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥ तो भी मैं एक उपाय कहता हूँ, यदि ईश्वर सहायता करेगा तो वह हो सकता है । जैसा पर मैंने श्राप से कहा है, उमा को वैसा ही मिलेगा इस में सन्देह नहीं ॥१॥ जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहिँ मैं अनुमाने । जौँ विवाह सङ्कर सन हाई। दोषउ गुन सम कह सब कोई ॥ २ ॥ मैं ने जिन जिन दापों का वर्णन किया उन सब का अनुमान शिवजी में करता हूँ। यदि शङ्कर से विवाह हो तो उनके दोपों को भी सब कोई गुण के समान कहते हैं ॥२॥ जाँ अहि-सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोष न धरहीं । भानु-कृसानु सर्व-रस खाहीं । तिन्ह कहँ मन्द कहत कोउ नाहीं ॥३॥ यदि विष्णु भगवान् शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं विशजन उनको कुछ दोष नहीं लगाते । सूर्य और अग्नि (भले बुरे) सब रस खाते हैं, पर उन्हें कोई खराब नहीं कहता ॥३॥ सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई। समरथ कह नहि दोष गोसाँई । रवि पावक सुरसरि की नाँई॥४॥ पवित्र और अपवित्र सब जन गाजी में बहता है, पर गंगामी को कोई अपवित्र नहीं कहता । हे स्वामिन् । सूर्य, अग्नि और गङ्गाजी के समान समर्थ को दोष नहीं है ॥ ४ ॥